Sunday, December 25, 2011

आरक्षण और राजनीतिक जमूरें



आरक्षण और राजनीतिक जमूरें.
जैसे कि कहा जाता है कि सम्पूर्ण न्यायपालिका में 100 के आस-पास सवर्ण परिवारों का कब्ज़ा है, शिक्षा संस्थानों में 90% देववाणी बोलने वालो का कब्ज़ा है, निजी क्षेत्र तो इन्ही लोगों के लिए निजी कर दिया गया है. विदेशी व्यापार में इनके आस -पास कोई टिकता नहीं और राजनीति में चाणक्य के वंशजों से कोई बड़ा नहीं.
UPA कैबिनेट द्वारा सामाजिक तथा  शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षित 27% कोटे में 4.5% सब-कोटा अल्पसंख्यकों (Muslims, Sikhs, Christians, Buddhists and Zoroastrians (Parsis)  के लिए आरक्षित कर दिया है. कांग्रेस कि कोशिश है कि किस तरह से लोकपाल मुद्दे  से बचा जाये और आने राज्यों के विधानसभा  चुनावों में स्थिति मजबूत करें. मामला बिलकुल साफ़ है कि जब तक सड़क से संसद तक विरोध और समर्थन का दौर  शुरू होगा तब तक विधानसभा चुनाव निबट गए होंगे. कांग्रेस की तो यही बिसात है.
लेकिन इस फैसलें में विरोधाभास बहुत है- एक तो भारतीय संविधान के अनुसार धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता तो दूसरी ओर अल्पसंख्यकों की आबादी का बिना सामाजिक-आर्थिक वर्गीकरण किये बिना आरक्षण देना स्वीकार्य नहीं होगा. अल्पसंख्यक  समुदाय में सबसे बड़ा हिस्सा मुसलमानों का है लेकिन क्या सभी मुसलमान को आरक्षण मिलना चाहिए. मुसलमानों में शेख-सैय्यद-मुग़ल -पठान  आदि वैसे ही संपन्न है जैसे हिन्दू धर्म में ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य.  क्या सभी मुसलमान, सिख, इसाई,बुद्धिस्ट और पारसी 'सामाजिक तथा शैक्षणिक  रूप से पिछड़े हुए है? शायद नहीं.
दूसरी तरफ राजनीतिक जमूरों का वाग्जाल जोरों पर है. कोई समर्थन कर रहा है कोई विरोध कर रहा है. लेकिन कोई ये नहीं कह रहा कि आरक्षण का दायरा इस आधार पर निश्चित होना चाहिए,कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.  इन जमूरों को (बेनी, लालू. मुलायम, नितीश, शरद आदि) को शायद और भी बुरी दशा का इंतज़ार है.

Tuesday, December 6, 2011

नयी सरकार



न मंदिर है, न मस्जिद है, न ही धर्म के ठेकेदार.
सामाजिक समरसता का आज है ये त्यौहार,
आओ रामू, आओ रहीम, सब मिलकर करों ये प्रण,
सामाजिक न्याय की अलख जगाओ,
 बाबा साहेब को कर के नमन.


पढने और पढ़ाने को,
हम आज ये मन में ठानेगे.
रहेंगे हम कर्मशील सदा,
पल भर भी हम न गवाएंगे.
हमको करना है काम बहुत,
इस देश की धारा बदलेंगे.

हम गड़े मठो को तोड़ेंगे,
इतिहास की धारा मोडेंगे.
रचनी है अब नयी रचना,
जब अपनी कलम से हम लिखेगे.

शिक्षित बनकर संघर्ष करेंगे,
और संगठित हो जायेंगे.
आओ बहना, आओ साथियों,
हम नया समाज बनायेंगे.

ज्ञान की बहेगी सदानीरा,
अत्त दीपो भव फैलायेंगे.
मन को निर्मल कर के हम,
समरस समाज बनायेंगे.

एक ऐसा हो परिवार जहाँ,
कोई भेद-भाव हो न वहां.
क्या ऊँच-नीच, क्या अगड़ा-पिछड़ा,
जहाँ सबल और निर्बल में, 
कभी न हो कोई झगडा.
जहाँ समता की चाह होगी,
वहीँ पे नयी राह होगी.
हम नयी राह बनायेंगे.
हम ऐसा परिवार बनायेंगे.

सत्ता की हमको चाह नहीं, 
सिद्धांतो को जीते जायेंगे,
फूले, अम्बेडकर, पेरियार को 
हम अपने नायक बनायेंगे,
माता सावित्री, जिजाऊ, झलकारी,
इन्हें दिल में बसाते जायेंगे.
रामस्वरूप, जगदेव, कांशीराम को जननायक मानकर 
बहुजनों को संगठित कर जायेंगे,

जब बहुजन संगठित हो जायेंगे,
तब व्यवस्था सुगठित हो जाएगी,
तब ऐसी सरकार बनायेंगे,
जिसमे मार्टिन और मंडेला,
की सोच का होगा बोलबाला.
देंगे नया सन्देश दुनिया को,
देंगे नयी राह दुनियां को.
दुनियां हमसे सीखेगी,
हम दुनिया से सीखेगे.
हम ऐसी सरकार बनायेंगे-२

हम सब  को करना है काम बहुत,
इस देश की धारा बदलेंगे.
शिक्षित बनकर संघर्ष करेंगे,
और संगठित हो जायेंगे.
आओ बहना, आओ साथियों,
हम नया समाज बनायेंगे-2

Wednesday, November 23, 2011

मेरा गाँव अब बूढा हो गया है.


मेरा गाँव अब बूढा हो गया है.
पीपल के पेड़ के नीचे बनी चौपाल,
अब सूनी हो गयी है.
हर मोहल्ला और गली
नुक्कड़ और वो तालाब के किनारे का मैदान
जहाँ खेलते थे बच्चे और जवान
कबड्डी और क्रिकेट
जहाँ तय होती थी शर्ते
हार और जीत की
अब वो मैदान बूढा हो गया है.

क्या बच्चे, क्या जवान,
सब गए है बाहर
लड़ रहे अपनी जिंदगी से
दो रोटी की आस में
एक नौकरी की जुगाड में
एक आशियाने के ख्वाब में
अब तो शहर है ग्लोबल-गाँव,
और ये है सब बाशिंदे
इनके है अपने रंग-ढंग
इनके है अपने देवता
देवता भी है  ग्लोबल.

मेरे गाँव के बच्चे और जवान
अब नहीं जाते गाँव,
अपनी दुनिया बना ली है
यहीं, हाँ यहीं
इस ग्लोबल देवता के
ग्लोबल गाँव में.
रहते है बेखबर, बेदर्द, बेफ़िकर,
अपनी मिट्टी और जड़ों से,
और उस गाँव से,
जो बूढा हो रहा है.

Friday, September 2, 2011

भारत लेनिन-जगदेव प्रसाद कुशवाहा :एक जन्मजात क्रांतिकारी


"जिस लड़ाई की बुनियाद आज मै डाल रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी. चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं. इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे. जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी." -जगदेव बाबू( 2 Feb.1922- 5 Sept. 1974), 25 अगस्त, 1967 को दिए गए ओजस्वी भाषण का अंश.

महात्मा ज्योतिबा फूले, पेरियार साहेब, डा. आंबेडकर और महामानववादी रामस्वरूप वर्मा के विचारों को कार्यरूप देने वाले जगदेव प्रसाद का जन्म 2 फरवरी 1922 को महात्मा बुद्ध की ज्ञान-स्थली बोध गया के समीप कुर्था प्रखंड के कुरहारी ग्राम में अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था. इनके पिता प्रयाग नारायण कुशवाहा पास के प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे तथा माता रासकली अनपढ़ थी. अपने पिता के मार्गदर्शन में बालक जगदेव ने मिडिल की परीक्षा पास की. उनकी इच्छा उच्च शिक्षा ग्रहण करने की थी, वे हाईस्कूल के लिए जहानाबाद चले गए.
निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण जगदेव जी की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील तथा जुझारू रही तथा बचपन से ही 'विद्रोही स्वाभाव' के थे. जगदेव प्रसाद जब किशोरावस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो उच्चवर्ण के छात्र उनका उपहास उड़ाते थे. एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धुल झोंक दी, इसकी सजा हेतु उनके पिता को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी.  जगदेव जी के साथ स्कूल में बदसूलकी भी हुयी. एक दिन बिना किसी गलती के एक शिक्षक ने जगदेव जी को चांटा जड़ दिया, कुछ दिनों बाद वही शिक्षक कक्षा में पढ़ाते-पढाते खर्राटे भरने लगे, जगदेव जी ने उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा. शिक्षक ने प्रधानाचार्य से शिकायत की इस पर जगदेव जी ने निडर भाव से कहा, 'गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलना चाहिए चाहे वो छात्र हो या शिक्षक'.
जब वे शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे. जगदेव जी की माँ धार्मिक स्वाभाव की थी, अपने पति की सेहत के लिए मंदिर में जाकर देवी-देवताओं की खूब पूजा, अर्चना किया तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया. यहीं से जगदेव जी के मन में हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी, उन्होंने घर की सारी देवी-देवताओं की मूर्तियों, तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर डाल दिया. इस ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म से जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वो अंत समय तक रहा, उन्होंने ब्राह्मणवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया.
जगदेव जी ने तमाम घरेलू झंझावतों के बीच उच्च शिक्षा ग्रहण किया. पटना विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक उत्तीर्ण किया. वही उनका परिचय चंद्रदेव प्रसाद वर्मा से हुआ, चंद्रदेव ने जगदेव बाबू को विभिन्न विचारको को पढने, जानने-सुनने के लिए प्रेरित किया, अब जगदेव जी ने सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया और राजनीति की तरफ प्रेरित हुए. इसी बीच वे 'शोसलिस्ट पार्टी' से जुड़ गए और पार्टी के मुखपत्र 'जनता' का संपादन भी किया. एक संजीदा पत्रकार की हैसियत से उन्होंने दलित-पिछड़ों-शोषितों की समस्याओं के बारे में खूब लिखा तथा उनके समाधान के बारे में अपनी कलम चलायी. 1955 में हैदराबाद जाकर इंगलिश वीकली 'Citizen' तथा हिन्दी साप्ताहिक 'उदय' का संपादन आरभ किया. उनके क्रन्तिकारी तथा ओजस्वी विचारों से पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन लाखों की संख्या में पहुँच गया. उन्हें धमकियों का भी सामना करना पड़ा, प्रकाशक से भी मन-मुटाव हुआ लेकिन जगदेव बाबू ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया, उन्होंने हंसकर संपादक पद से त्यागपत्र देकर पटना वापस लौट आये और समाजवादियों के साथ आन्दोलन शुरू किया.
बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी, लेकिन जे.पी. तथा लोहिया के बीच सद्धान्तिक मतभेद था. जब जे. पी. ने राम मनोहर लोहिया का साथ छोड़ दिया तब बिहार में जगदेव बाबू ने लोहिया का साथ दिया, उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत किया और समाजवादी विचारधारा का देशीकरण करके इसको घर-घर पहुंचा दिया. जे.पी. मुख्यधारा की राजनीति से हटकर विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आन्दोलन में शामिल हो गए. जे. पी. नाखून कटाकर क्रांतिकारी बने, वे हमेशा अगड़ी जातियों के समाजवादियों के हित-साधक रहे. भूदान आन्दोलन में जमींदारों का ह्रदय परिवर्तन कराकर जो जमीन प्राप्त की गयी वह पूर्णतया उसर और बंजर थी, उसे गरीब-गुरुबों में बाँट दिया गया था, लोगो ने खून-पसीना एक करके उसे खेती लायक बनाया. लोगों में खुशी का संचार हुआ लेकिन भू-सामंतो ने जमीन 'हड़प नीति' शुरू की और दलित-पिछड़ों की खूब मार-काट की गयी, अर्थात भूदान आन्दोलन से गरीबों का कोई भला नहीं हुआ उनका Labour Exploitation' जमकर हुआ और समाज में समरसता की जगह अलगाववाद का दौर शुरू हुआ. कर्पूरी ठाकुर ने विनोबा भावे की खुलकर आलोचना की और 'हवाई महात्मा' कहा. (देखे- कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद: नरेंद्र पाठक)
जगदेव बाबू ने 1967 के विधानसभा चुनाव में संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, 1966 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ था) के उम्मीदवार के रूप में कुर्था में जोरदार जीत दर्ज की.  उनके अथक प्रयासों से स्वतंत्र बिहार के इतिहास में पहली बार संविद सरकार (Coalition Government) बनी तथा महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाया गया. जगदेव बाबू तथा कर्पूरी ठाकुर की सूझ-बूझ से पहली गैर-कांग्रेस सरकार का गठन हुआ, लेकिन पार्टी की नीतियों तथा विचारधारा के मसले लोहिया से अनबन हुयी और 'कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला' की स्थिति देखकर संसोपा छोड़कर 25 अगस्त 1967 को 'शोषित दल' नाम से नयी पार्टी बनाई, उस समय अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था-
"जिस लड़ाई की बुनियाद आज मै डाल रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी. चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं. इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे. जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी." आज जब देश के अधिकांश राज्यों की तरफ नजर डालते है तो उन राज्यों की सरकारों के मुखिया 'शोषित समाज' से ही आते है.
जगदेव बाबू एक महान राजनीतिक दूरदर्शी थे, वे हमेशा शोषित समाज की भलाई के बारे में सोचा और इसके लिए उन्होंने पार्टी तथा विचारधारा किसी को महत्त्व नहीं दिया. मार्च 1970 में जब जगदेव बाबू के दल के समर्थन से दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने, उन्होंने 2 अप्रैल 1970 को बिहार विधानसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया-
"मैंने कम्युनिस्ट पार्टी, संसोपा, प्रसोपा जो कम्युनिस्ट तथा समाजवाद की पार्टी है, के नेताओं के भाषण भी सुने है, जो भाषण इन इन दलों के नेताओं ने दिए है, उनसे साफ हो जाता है कि अब ये पार्टियाँ किसी काम की नहीं रह गयी है इनसे कोई ऐतिहासिक परिवर्तन तथा सामाजिक क्रांति की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. इन पार्टियों में साहस नहीं है कि सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी जो असली कारण है उनको साफ शब्दों में मजबूती से कहे. कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी ये सब द्विजवादी पूंजीवादी व्यवस्था और संस्कृति के पोषक है. ........ मेरे ख्याल से यह सरकार और सभी राजनीतिक पार्टियाँ द्विज नियंत्रित होने के कारण राज्यपाल की तरह दिशाहीन हो चुकी है. मुझको कम्युनिज्म और समाजवाद की पार्टियों से भारी निराशा हुयी है. इनका नेतृत्व दिनकट्टू नेतृत्व हो गया है." उन्होंने आगे कहा- 'सामाजिक न्याय, स्वच्छ तथा निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्धसरकारी और गैरसरकारी नौकरियों में कम से कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए आरक्षित कर दिया जाये.

बिहार में राजनीति का प्रजातंत्रीकरण (Democratisation) को स्थाई रूप देने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस किया. वे मानववादी रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित 'अर्जक संघ' (स्थापना 1 जून, 1968) में शामिल हुए. जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही ब्राह्मणवाद को ख़त्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है. उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया. उस समय ये नारा गली-गली गूंजता था-
मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान,
पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद.
7 अगस्त 1972 को शोषित दल तथा रामस्वरूप वर्मा जी की पार्टी 'समाज दल' का एकीकरण हुआ और 'शोषित समाज दल' नमक नयी पार्टी का गठन किया गया.  एक दार्शनिक तथा एक क्रांतिकारी के संगम से पार्टी में नयी उर्जा का संचार हुआ. जगदेव बाबू पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में जगह-जगह तूफानी दौरा आरम्भ किया. वे नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे. सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की सभा में उन्होंने कहा था-
दस का शासन नब्बे पर,
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा.
सौ में नब्बे शोषित है,
नब्बे भाग हमारा है.
धन-धरती और राजपाट में,
नब्बे भाग हमारा है.
जगदेव बाबू अपने भाषणों से शोषित समाज में नवचेतना का संचार किया, जिससे सभी लोग इनके दल के झंडे तले एकत्रित होने लगे. जगदेव बाबू ने महान राजनीतिक विचारक टी.एच. ग्रीन के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया कि चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है, स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वो उचित अधिकारों को प्रदान करे.
बिहार की जनता अब इन्हें 'बिहार लेनिन'  के नाम से बुलाने लगी. इसी समय बिहार में कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ जे.पी. के नेतृत्व में विशाल छात्र आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व प्रभुवर्ग के अंग्रेजीदा लोगों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने छात्र आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी. इससे दो कदम आगे बढ़कर वे इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगो को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा सरकार पर भी दबाव डाला गया लेकिन भ्रष्ट प्रशासन तथा ब्राह्मणवादी सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. जिससे 5 सितम्बर 1974  से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी. 5 सितम्बर 1974  को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे. कुर्था में तैनात डी.एस.पी. ने सत्याग्रहियों को रोका तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और विरोधियों के पूर्वनियोजित जाल में फंस गए. सत्याग्रहियों पर पुलिस ने अचानक हमला बोल दिया. जगदेव बाबू चट्टान की तरह जमें रहे और और अपना क्रांतिकारी भाषण जरी रखा, निर्दयी पुलिस ने उनके ऊपर गोली चला दी. गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी, वे गिर पड़े. सत्याग्रहियों ने उनका बचाव किया किन्तु क्रूर पुलिस ने घायलावस्था में उन्हें पुलिस स्टेशन ले गयी. जगदेव बाबू को घसीटते हुए ले जाया जा रहा था और वे पानी-पानी चिल्ला रहे थे. जब पास की एक दलित महिला ने उन्हें पानी देना चाहा तो उसे मारकर भगा दिया गया, उनकी छाती को बंदूकों की बटों से बराबर पीटते रहे और पानी मांगने पर उनके मुंह पर पेशाब किया गया. आज तक किसी भी राजनेता के साथ आजाद भारत में इतना अमानवीय कृत्य नहीं किया गया. पानी-पानी चिल्लाते हुए जगदेव जी ने थाने में ही अंतिम सांसे ली. पुलिस प्रशासन ने उनके मृत शरीर को गायब करना चाहा लेकिन भारी जन-दबाव के चलते उनके शव को 6 सतम्बर को पटना लाया गया, उनके अंतिम शवयात्रा में देश के कोने-कोने से लाखो-लाखों लोग पहुंचे.
जगदेव बाबू एक जन्मजात क्रन्तिकारी थे, उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना नेतृत्व दिया, उन्होंने ब्राह्मणवाद नामक आक्टोपस का सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक तरीके से प्रतिकार किया. भ्रष्ट तथा ब्राह्मणवादी सरकार ने साजिश के तहत उनकी हत्या भले ही करवा दी हो लेकिन उनका वैचारिक तथा दार्शनिक विचारपुन्ज अद्यतन पूर्णरूपेण आभामयी है.

शोषित समाज हेतु जगदेव बाबू का योगदान-
जगदेव बाबू निडर, स्वाभिमानी तथा बहुजन हितचिन्तक थे. जब बिहार नक्सलवाद की आग में जल रहा था और ये प्रतीत हो रहा था कि हथियारबंद आन्दोलन ही सामंतवाद को जड़ से उखड सकता है, जगदेव बाबू ने इसी समय जन आन्दोलन को उभारा. जहाँ नक्सलवाद सामंतवाद को सिर्फ जमीन (Land) से सम्बन्ध करके देखता है, वहीँ जगदेव बाबू जी ने इसको सही ढंग से परिभाषित किया कि सामंतवाद जमींदारी प्रथा का परिवर्तित रूप है यह प्राथमिक अवस्था में जातिवादी सिस्टम के रूप में काम करता है जो निचली जाती के लोगों का आर्थिक तथा सामाजिक शोषण करता है.
उत्तर भारत की राजनीति में उनका सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने मुख्यमंत्री  पद को सुशोभित करते आये ऊँची जाति के एकाधिकार को समाप्त कर दिया. संसोपा में रहते हुए लोहिया के इस नारे का विरोध किया कि 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' इसके जवाब में उन्होंने कहा- "सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है." यद्यपि उनकी हत्या 1974 में ही हो जाती है किन्तु तब से लेकर आज तक बिहार में शोषित समाज के लोगों ने ही मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया (दरोगा प्रसाद राय से लेकर जीतनराम मांझी तक).
वे पहले ऐसे राजनेता थे जिन्होंने सामाजिक न्याय को धर्मनिरपेक्षवाद के साथ मिश्रित किया. जब 'मंडल कमीशन' कमंडल (तथाकथित राम मंदिर आन्दोलन) की भेंट चढ़ गया तब उनके सामाजिक न्याय के द्रष्टिकोण को भारी चोट पहुँची. आज सबसे ज्यादा पिछड़े वर्ग के लोग पूजा-पाठ करते है, मंदिर खुद बनवाते है लेकिन पुजारी उच्च वर्ग से होता है, पुजारी पद का कोई सामाजिक तथा लैंगिक प्रजातंत्रीकरण नहीं है इसमें शोषण तो शोषित समाज का ही होता है. अर्थात धर्म का व्यापार कई करोड़ों-करोड़ का है और ये खास वर्ण के लोगो की दीर्घकालिक आरक्षित राजनीति है. इसलिए जगदेव बाबू ने लोगों को राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक संघर्ष की आवश्यकता का अहसास दिलाया था. उन्होंने अर्जक संघ को अंगीकार किया जो ब्राह्मणवाद का खात्मा करके मानववाद को स्थापित करने की बात करता है. उन्होंने 1960-70 के दशक में सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंका था उन्होंने कहा था कि- 'यदि आपके घर में आपके ही बच्चे या सगे-संबंधी की मौत हो गयी हो किन्तु यदि पड़ोस में ब्राह्मणवाद विरोधी कोई सभा चल रही हो तो पहले उसमें शामिल हो', ये क्रांतिकारी जज्बा था जगदेव बाबू का. आज फिर से जगदेव बाबू की उस विरासत को आगे बढ़ाना है जिसमें 90% लोगों के हित, हक़-हकूक की बात की गयी है. 
जगदेव बाबू वर्तमान शिक्षा प्रणाली को विषमतामूलक, ब्राह्मणवादी विचारों का पोषक तथा अनुत्पादक मानते थे. वे समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के पक्ष में थे. एक सामान तथा अनिवार्य शिक्षा के पैरोकार थे तथा शिक्षा को केन्द्रीय सूची का विषय बनाने के पक्षधर थे. वे कहते थे-
चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान,
सबको शिक्षा एक सामान.
जगदेव बाबू कुशवाहा जी की जयंती हर साल २ फरवरी को कुर्था (बिहार) में एक मेले का आयोजन करके मनाई जाती है, जिसमे लाखों की संख्या में लोग जुटते है. हर गुजरते साल में उनकी शहादत की महत्ता बढ़ती जा रही है. दो वर्ष पहले शोषित समाज दल ने उन्हें 'भारत लेनिन'  के नाम से विभूषित किया है.  उनकी क्रांतिकारी विरासत जिससे उन्होंने राजनीतिक आन्दोलन को सांस्कृतिक आन्दोलन के साथ एका कर आगे बढाया तथा जाति-व्यवस्था पर आधारित निरादर तथा शोषण के विरूद्ध कभी भी नहीं झुके, आज वो विरासत ध्रुव तारा की बराबर चमक रही है. लोग आज भी उन्हें ऐसे मुक्तिदाता के रूप में याद करते है जो शोषित समाज के आत्मसम्मान तथा हित के लिए अंतिम साँस तक लड़े. ऐसे महामानव, जन्मजात क्रांतिकारी को एक क्रांतिकारी का सलाम.

Tuesday, August 23, 2011

पोगापंथी और गैर-बराबरी को मिटाए बिना भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता!


देश के नब्बे सैकड़ा शोषित समाज के पहरुए, अर्जक संघ के संथापक तथा नव-मानववाद के प्रणेता रामस्वरूप वर्मा जी के जन्म-दिन (22 अगस्त-क्रांति दिवस) के   अवसर पर-

पोगापंथी और गैर-बराबरी को मिटाए बिना भ्रष्टाचार नहीं मिट सकता!
ब्राह्मणवाद का मूल आधार पुनर्जन्म और भाग्यवाद है. पुनर्जन्म और भाग्यवाद पर टिका ब्राह्मणवाद शुरू से ही यह कल्पना कर के चलता है कि हरामखोरी अच्छे भाग्य की निशानी है . यदि कोई राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन कर सोना, चांदी, अफीम, चरस और दूसरे सामानों का तस्कर व्यापार करता है तो उसे भयंकर भ्रष्टाचारी कहा जाना चाहिए, लेकिन ब्राह्मणवाद की कृपा से उसका यह राष्ट्रद्रोह पुनर्जन्म के कारण मिले अतरिक्त लाभ से छिप जाता है. लोग इस पर विचार ही नहीं करना चाहते है कि अमुक व्यक्ति राष्ट्रद्रोह कर रहा है.वह तो इस तरह से कमायें नाजायज धन को देखकर यही कहता है कि 'देखो भगवान कैसे छप्पर फाड़ के  दे रहा है'. पूर्वजन्म की  कमाई का फल है कि बिना परिश्रम के अमुक आदमी धनी ही गया, अपना अपना भाग्य है....  एक हम लोग है जो गर्मी, जाड़ा, बरसात में काम करके शरीर को खपायें दे रहे है फिर भी भर पेट भोजन नहीं पाते. पुनर्जन्म और भाग्यवाद ने लोगो की चेतना को इतना  नष्ट किया है कि राष्ट्रद्रोह से कमायें धन को भी वे भाग्य का फल समझते है, इसी प्रकार रिश्वतखोरी भी राष्ट्रद्रोह है. देने वाला तो मज़बूरी में देता है पर लेने वाला अपने अधिकार का दुरूपयोग करके ही रिश्वत पाता है,
लेकिन वाह रे ब्राह्मणवाद! रिश्वतखोर के भाग्य में ऐसे ही धन कि आमद लिखी है, ऐसा कहा जाता है, पिछेले जन्म का पुण्य है जिससे धन अंधाधुंध आ रहा है, रिश्वतखोर की कर्तव्यहीनता और उसका राष्ट्रद्रोह ब्राह्मणवाद के आंचल में छिप जाता है और उसका कुकर्म पिछले जन्म के पुण्य के रूप में समझा जाता है.
लोगो को धोखा देकर (बाबा, महात्मा का स्वांग रचकर) लूटने वाले हो,या औरतें बेचकर, डकैती करके कानून तोड़कर, झूठ बोलकर पैसा कमाने वाले हो, इन पर ब्राह्मणवादी की निगाह नहीं जाती है, ये दूसरी बात है कि ये भगवान से निरीह की भांति प्रार्थना करते है कि 'हे भगवन! इसे इसके पापों का फल जल्दी दे, वे स्वयं भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास नहीं करेंगे, भगवान से प्रार्थना करके कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेंगे. यदि भाग्य, भगवान का चक्कर न होता तो ऐसे राष्ट्रद्रोही, कर्तव्यहीन और कुकर्मी और भ्रष्टाचारी को समाज ही दण्डित कर देता फिर भ्रष्टाचार करने कि हिम्मत किसी में नहीं होती. लेकिन आज तो छला जाने वाला व्यक्ति भी अपनी ऑंखें बंद कर लेता है, क्योंकि वो भ्रष्टाचारी को अदालत में सौपने कि बजाय भगवान को सौप देता है कि वह इंसाफ करेगा. अगर भगवान ही सबके कुकर्मो का फल  देने के लिए है तो फिर अदालते क्यों बनायीं गयी है, क्यों इन पर करोडो  खर्च हो रहा है? ख़त्म कर दो इन्हें !!
क्योंकि अदालतों का होना भी भगवान की इच्छा का फल है बिना उसकी मर्जी के पत्ता भी नहीं हिल सकता . यदि भ्रष्टाचार और कुकर्म अधिक बढ़ते है तो मनुष्य कर भी क्या कर सकता है ये भगवान की इच्छा है. हाँ इतना अवश्य है कि
'जब जब होय धर्म की हानी, बाढ़हि  अधम असुर अभिमानी, तब तब प्रभु धर विविध शरीर, हरहिं सदा सुर सज्जन पीरा' क्योंकि गीता में 'भोगवान' कृष्ण कहते है-
'यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत, अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मन स्राजम्यहम'. तो फिर क्या पड़ी है इन ब्रह्मनवादियों को कि  वे भ्रष्टाचार और कुकर्मों को रोंके.यदि भ्रष्टाचार बाधा है तो ये कलियुग का प्रभाव है और इसके नाश के लिए भगवान का दसवां अवतार 'कल्कि' नाम से होने वाला है . भविष्य पुराण में और अनेक ब्राह्मणवादी ग्रंथो में लिखा है फिर ब्राह्मणवाद के शिकार लोग भ्रष्टाचार का प्रतिरोध क्यों करने लगे.
कितनी बेबसी लादी है इस ब्राह्मणवाद ने.मात्र दिमागी काम करने वाले वकील, डाक्टर और IAS जैसे लोग बिना किसी अनुपात के धन कमायें. जो प्रतिभा समाज सेवा के लिए है उसका सदुपयोग होना ही चाहिए लेकिन इतना बड़ा अंतर आमदनी में हो तो हरामखोरी तो पनपेगी ही. लेकिन इस देश में इस पर विचार नहीं होता कि किसान हल चला कर ईमानदारी से उत्पादन करता है और समाज का पेट पलता है, लेकिन जो रंच मात्र भी उत्पादन नहीं करते उनकी आमदनी इस हाड़तोड़ आदमी से कई गुना क्यों, यदि किसान IAS का काम आसानी से नहीं कर सकता है तो IAS भी तो किसान का काम आसानी से नहीं कर सकता है, काम की गरिमा के अनुसार उत्पादन के कारण किसान प्रथम  है. यदि सभी कामो को आवश्यक मानते हुए बराबर कहा जाये तो आमदनी में इतना फर्क क्यों? यह भी भगवान का बनाया हुआ है कि मनुष्य का,ब्राह्मणवादी इस पर विचार नहीं करते, क्योंकि उनकी आँखों पर  पुनर्जन्म और भाग्यवाद का रंगीन चश्मा चढ़ा हुआ है, ब्राह्मणवाद हरामखोरी को बढ़ावा देने वाला रहा है इसीलिए जब उनके पुनर्जन्म और भाग्यवाद पर चोट पहुंचती है तो वे तिलमिला उठते है.

गुणों का आदर करने वाले और अवगुणों के खिलाफ बगावत करने वाले समाज में भ्रष्टाचार को स्थान नहीं मिलता. किन्तु ब्राह्मणवाद में तो- पतितोअपि द्विजः श्रेष्ठा न च शूद्रो जितेन्द्रियः / पतित यानि अधर्मी ब्राह्मण श्रेष्ठ है किन्तु इन्द्रियों को जीतने वाला शूद्र श्रेष्ठ नहीं हो सकता. पुनर्जन्म और भाग्य को जब तक प्रतिभा का आधार मानेंगे तब तक ब्राह्मणवाद का नाश नहीं होगा, आज प्रशासन में ब्रह्मनवादियों का वर्चस्व है और वे पतित होते हुए भी भी श्रेष्ठ है, उनका भ्रष्टाचार अबाध गति से चलेगा, क्योंकि ये भ्रष्ट होते हुए भी शोषितों से श्रेष्ठ है. उस शूद्र से भी जो कर्तव्यपरायण और सदाचारी है, बलिहारी है इस ब्राह्मणवाद की! जब तक मानववादी जज न होऐसी व्यवस्था दे ही नहीं सकता है जो की ब्राह्मणवाद के ऊपर एक श्लोक  ने दी हो. यही क्यों?.. तुलसीदास ने इनकी मुर्खता को ढकने का प्रयास किया है - 'पूजिय विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना/ जिस समाज में गुणों का आदर नहीं होगा तो वो भ्रष्टाचारी समाज ही होगा. आज जब किसी शूद्र की लड़की के साथ ब्राह्मणवादी बलात्कार,यौन शोषण करते है तो ये कहा जाता है की ऐसा तो होता आया है जाने भी दो यारों. यदि किसी ब्राह्मणवादी की लड़की के साथ कोई शूद्र या म्लेच्छ ख़ुशी से शादी कर ले तो इनमे हाहाकार मच जायेगा, श्रुति केस अभी लोगो को भूला नहीं होगा. यही है ब्राह्मणवाद की महिमा, उसमे दोष की कोई परिभाषा नहीं. जन्म से ही उत्पन्न जाति की परिभाषा है फिर गुणों का आदर कैसे समाज में हो सकता है?? भ्रष्टाचार का भयंकर बोलबाला प्रशासन में है, इसे ब्रह्मान्वादियों ने बढ़ावा दिया है, उच्च श्रेणी की नौकरियों में शूद्रों की संख्या १० % से अधिक नहीं है जबकि शूद्र उत्पादक वर्ग है और आबादी 90% है.
परम मेधावान युवा भले ही  अच्छे पद में पहुँच जाये, नहीं तो शूद्रों को प्रशासन में लेने की हिचक सदैव रहती है. देश के प्रशासन में आज तक जितने भी घोटालें हुए है उनको इसलिए दबा दिया गया क्योकि घोटाले के दोषी ब्राह्मणवादी थे (बोफोर्स कांड,ताबूत घोटाला, तरंगो का घोटाला- 2 G spetrum & S-band spectrum case, राष्ट्रमंडल खेल, आदर्श सोसईटी इत्यादि). इसलिए प्रसाशन में ज्यादा से ज्यादा शूद्रों को लेना चाहिए. वैसे तो वे स्वयं ही डरेंगे और स्वाभाव से अर्जक (मेहनत कर के अर्जन करने वाला) होने के कारण हरामखोरी पर यकीन नहीं करेंगे किन्तु इसमें अड़चन ब्राह्मणवाद ही है. क्योकि 'पूजिय विप्र शील गुण हीना, शूद्र न गुण गण ज्ञान प्रवीना', उनके कानो में 24 घंटे गूंजता रहता है इसलिए वे भी इसका शिकार हो जाते है.अतः स्पष्ट है जब तक ब्राह्मणवादको समूल मिटाया नहीं जायेगा और जब तक जीवन के लिए ये मूल्य नहीं बदलेंगे , तब तक भ्रष्टाचार नहीं समाप्त नहीं होगा. इसका समाधान मानववाद में है.
"मानववाद की क्या पहचान- सभी मानव एक सामान,
पुनर्जन्म और भाग्यवाद - इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद

(रामस्वरूप वर्मा जी की  रचना 'मानववाद बनाम ब्राह्मणवाद ' से )


Wednesday, August 3, 2011

मैं धर्म को व्यक्तिगत आस्था मानता हूं लेकिन इन लोगों ने इसे व्यवस्था बना दिया है- राजेन्द्र यादव

बीते रविवार 31 जुलाई को हंस पत्रिका के 25 साल पूरे होने पर दिल्ली के एक सभागार में आयोजन किया गया. राजेन्द्र यादव से एक बातचीत-

सवाल- इस पच्चीस साल की यात्रा में कोई ऐसा क्षण जिसकी टीस अभी भी मन में बनी हो?
जवाब- कोई ऐसा क्षण नहीं है. जो होता भी है वह समय के साथ भूल जाता है. वक्त बीतने के साथ उसके दंश खत्म हो जाते हैं. पच्चीस साल में आशा के क्षण भी और निराशा के भी क्षण हैं.
सवाल- फिर भी कोई एक ऐसी घटना?
जवाब- जब बाबरी मस्जिद गिरी तब हमारी संपादकीय पर हंगामा हुआ. जब अमेरिका में ट्रेड टावर जलाए गये तो उस वक्त भी हमारी संपादकीय पर हंगामा हुआ. पुलिस केस भी दर्ज करवाया गया. हमने कहा था कि रावण के दरबार में हनुमान पहला आतंकवादी था. औरंगजेब के दरबार में शिवाजी पहला आतंकवादी था. अंग्रेजों के दरबार में भगत सिंह पहला आतंकवादी था. लेकिन क्योंकि हिन्दू धर्म के लोग प्राय: अनपढ़ होते हैं. मूर्ख लोग होते हैं. जढ़ होते हैं इसलिए उन्होंने विवाद पैदा कर दिया.

सवाल- हिन्दू धर्म पर टिप्पणियों को लेकर आप विवादित रहे हैं....

जवाब- धर्म वर्म से हमारा बहुत मतलब नहीं है. मैं अनास्तिक व्यक्ति हूं. लेकिन मैं यह मानता हूं कि जो कुछ जैसा दिया गया है उसको स्वीकार करना बुद्धि का अपमान है. मैंने आपसे कह दिया कि दुनिया इस तरह है और आपने मान लिया. अपनी बुद्धि का इस्तेमाल क्यों नहीं करते? जो जैसा है उसका दूसरा पक्ष लाना हमारी जरूरत है.
सवाल- आप धर्म को व्यवस्था मानते हैं या व्यक्तिगत आस्था?
जवाब- मैं धर्म को व्यक्तिगत आस्था मानता हूं लेकिन इन लोगों ने इसे व्यवस्था बना दिया है.

सवाल- यह दूसरा पक्ष राजेन्द्र यादव बताएं तो स्वीकार करने में ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं है?
जवाब- ऐसा नहीं है. विरोध भी होता है. लेकिन जहां तक धर्मों की बात है तो सारे धर्म अतीत जीवी हैं. इनके पास भविष्य नहीं है. भविष्य के नाम पर ये अतीत को ही लाएंगे. आज की समाज संरचना के अनुसार हमारा भविष्य क्या होगा इसके लिए पुराण और रामायण तय नहीं करेगा. मैं सख्ती से इसका विरोध करता हूं.

सवाल- लेकिन स्मृतियां अगर अतीत में जाती हैं तो क्या करेंगें?
जवाब- वह स्मृति अलग चीज है. फिर भी अगर वह स्मृति भी हमारे काम की नहीं है तो उसे लादकर हम कहां कहां जाएंगे. भविष्य में यात्रा के लिए जो कुछ गैर जरूरी है उसे छोड़ना होगा फिर वे चाहे जितनी महान या अच्छी ही क्यों न हो.

(साभार - visfot.com)



Friday, July 15, 2011

अन्ना और अन्न


अन्ना ने भरी हुँकार,
ख़त्म करेंगे भ्रष्टाचार.
लोकपाल विधेयक उनका सपना,
हरामखोरों को होगा हटना.
सरकार भी हुई चौकन्ना, मिडिया ने किया है दिन-रात काम.
प्रभु वर्ग का मिला समर्थन, छा गए सर्वत्र अन्ना अन्ना.
लेकिन…
यदि अन्ना ने सोचा होता-
कौन है ये हरामखोर?
कौन है ये सरकारी चोर?
कैसे ये पनपते है?
कौन है इनका सरदार?
हमें पता है तुम्हे पता है, देश की जनता का हाल.
एक रुपईया चलता है,
शहर से गावों की ओर, चलते-चलते कटते-कटते,
दस पईसा उसे मिलता है.
कौन खा गया बड़ा हिस्सा,
जो है इसका जिम्मेदार,
वो ही है भ्रष्टाचारी,
वो ही बड़ा हरामखोर..
मेरे गाँव के मंगलू, रामू, नफीसा चाची और कलुआ काका.
चल देते है शहर की ओर,
दो रोटी के जुगाड़ में,
एक आशियाने के ख्वाब में,
जब वे गाँव से निकलते है, सोचते है यही हर बार.
मेरे गाँव के मंगलू, रामू. नफीसा चाची और कलुआ काका.
हाड़-तोड़ मेहनत वो करते,
सेठ को खुश रखते है,
काम से जब लौट के आते,
राशन लेने बाज़ार वो जाते.
जब पूंछते है अन्न का दाम, उनकी घिग्घी बांध जाती है, होश फाख्ता हो जाते है,
घर आकर चूल्हा जलाते,
पेट की वो क्षुधा मिटाते.
देश में अन्न की कमी नहीं है, अन्न मिल सकता है सबको.. बशर्ते…
अन्न भण्डारण हो जाये सही से, वितरण हो सही ढंग से, बिचौलियों को मार भगाओ,
यदि ये उत्पात मचाये,
इनकों फांसी पर लटकाओ, नफीसा, कलुआ की भूख मिटाओ,
भूख ‘वर्गीय’ नहीं होती,
ऐसा कहते है जो लोग,
उनके अपने स्वार्थ है, उन्हें चाहिए छप्पन भोग, इसी को कहते है वो भूख,
पर अपने मंगलू, रामू का क्या- यदि वो पा जाये दो रोटी,
साथ में हो दाल, तरकारी.
यही खाकर वो खुश रहते है,
यही है उनका छप्पन भोग.
उन्होंने भी अन्ना का नाम सुना है, सोच रहे है कि एक दिन-
वे अन्ना के पास जायेंगे, अपना दुखड़ा रोयेंगे,
कुछ तो अन्न पा जायेंगे,
वे सोचते रहते है कि-
अन्ना, अन्न का बड़ा ‘भाई’ है, गरीबों का गुसांई है.
भूख मिट गयी तो,
मिट जायेगा भ्रष्टाचार,
देश सम्रद्ध हो जायेगा,
न कोई बन्दूक उठाएगा,
न किसी को मौका मिलेगा,
कि करें त्रिशूल का व्यापार.
‘बहुजन’ की विनती है अन्ना से, कि अन्न की तरफ दे वे ध्यान, करोड़ों उठेंगे हाँथ,
दुवाये मिलेगी एक साथ,
कि अन्ना तुम संघर्ष करों, हम तुम्हारे साथ है -२

शैक्षणिक सुधार के नाम पर लूटने की आजादी

अभी हाल में ही  अनिल काकोडकर के नेतृत्व वाली कमेटी ने भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों (IITs ) की फीस पांच गुना बढ़ने का प्रस्ताव किया है, उनका कहना है इससे वे सरकारी अनुदान में निर्भर नहीं रहेंगे और पूरी स्वायत्ता से काम करेंगे, जिससे देश को अच्छी प्रतिभायें मिलेंगी. यानि एक और ‘रेडिकल’ कदम. इसके पहले यू पी ए सरकार संसद में  ’विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010 ‘ पेश ही कर चुकी है और उसमें अंतिम वैध मुहर लगना बाकी है. वैश्वीकरण  के दौर में शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन को आप कैसे रोकेंगे भला.
UPA सरकार ‘विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010′  का तहेदिल से स्वागत कर रही है, और इसे शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन बता रही है, परिवर्तन तो पक्का है, शिक्षा क्षेत्र को भी ओपन मार्केट की तरह खोल दिया जायेगा, आओ पैसा लगाओ और मुनाफा कमाओ. जहाँ उच्च शिक्षा में इनरोलमेंट का अनुपात  केवल १२% हो, जहाँ कैपिटेशन फीस 1000000 रु. से कम न हो.
जहाँ गुणवत्ताकारी शोध  के नाम  में गरीब,सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ें वर्ग (SEBCs )  के लिए कोई स्कोप न हो.
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि इस देश को 1000 नए विश्वविद्यालयों कि जरूरत है, जबकि इस देश में 612 जिले है यानि एक जिले के हिस्से में 3 /2 से अधिक विश्वविद्यालय  मिलेंगे. कपिल सिब्बल के इस बयान के क्या निहितार्थ हो सकते है.
देश में शिक्षागत ढांचा अभी भी उतना ख़राब नहीं है, जितना इसे ख़राब करने कि कोशिश कि जा रही है. पिछले 10  सालों में ढांचागत विकास में भी बदलाव आया है, अब स्कूलों का निर्माण पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (P-P-P )  के तहत हो रहा है, जब निजी क्षेत्र के खिलाडी अपना पैसा लगायेंगे तो उससे भरपूर मुनाफा भी वसूलना चाहेंगे , मसलन आगे दुकान पीछे स्कूल का भी सिद्धांत चलेगा, शैक्षणिक परिवेश से इनका कोई सरोकार नहीं रहेगा, बावजूद इसके म्युनिसिपलिटी/नगर निगम का स्कूल हमेशा दोयम दर्जे का  माना जाता है, जब नीति-निर्माता अपने नौनिहालों को फर्राटेदार अंग्रेजी वाले स्कूलों में ही भेजेंगे और उनको उन्हें ये सिखायेंगे कि ” my son! you are better than this ragpicker student, Don’t touch him/her, they are very dirty people, you know i am your papa.” तब आप पिछड़ों और दलित के बच्चो के बारे में क्या सोचेंगे. देश में पहले से ही जो शैक्षणिक ढांचा है आप उसमें सुधार नहीं करेंगे, जिम्मेदारियों से भागना कितना आसान है.  ये है प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन.
अब आइये उच्च शिक्षा कि ओर:

ग्लोबल एजुकेशन डाइजेस्ट , 2009 (UNESCO ) के अनुसार भारत  में उच्च शिक्षण संस्थानों में समग्र नामांकन अनुपात 12 % है, जबकि वैश्विक  अनुपात 23 % है. दूसरें देशों चीन में 23 %, अमेरिका में 82 % और क्यूबा में 109 % है. देश में इंजीनियरिंग कोर्स के लिए कैपिटेशन फीस दस लाख रु. तक, MBBS के लिए पचास लाख रु. तक, कला तथा विज्ञानं के कोर्से की फीस 5 लाख रु. तक है. इन उच्च  शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए 22 .5 % प्रतिनित्धित्व की संवैधानिक व्यवस्था है और ‘सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े(SEBCs)’ वर्ग के लिए 27 % है, लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा संस्थानों में कुछ खास वर्ग/जातियों के छात्रों कि संख्या सर्वाधिक है.  SEBCs के लिए 27 % आरक्षण कि बात की गयी लेकिन 100 % के अन्दर नहीं बल्कि 127 % सीटें बढाकर. इसके बावजूद इस वर्ग के छात्रों की संख्या 12 % है,  यानि 54 % सीटें बढाकर खास वर्ग ने अपने लिए 42 % सीटें बढ़ा ली.  उसके बाद साजिश के तहत एक ही बार में न लागू कर इसे  प्रति वर्ष 9 % की दर 3 सालों में लागू करने की बात की गयी.
सूचना के अधिकार के तहत हमें पता चलता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 2 .7 % SEBCs और     9 .7 % SC /ST टीचर है. तो सवाल ये उठता है कि शेष 90 टीचर किस वर्ग/जाति से आते है, ये है उच्च शिक्षा संस्थानों कि हकीकत. उच्च शिक्षा संस्थानों में 100 % प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सन 2000 से ही शुरू है तथा P-P-P (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप) की भी प्रमोट भी कर रही है, ऐसे में इस बिल के पास होने से और क्या आमूलचूल परिवर्तन होने वाला है-
*देश में फिर से गुणवत्ता तथा मेरिट का एक और मानक तय किया जायेगा ताकि हमारे छात्र वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अव्वल नंबर पायें.
*विदेश में अध्ययनरत छात्र को अब वही मेरिट तथा उच्च गुणवत्ता की शिक्षा खुद विदेशी शिक्षा संस्थान चलकर आपके पास आएंगे, इससे आप कम खर्च में ही वही डिग्री देंगे, आप भी खुश और सरकार भी.
इसके परिणाम क्या होंगे-

स्पष्ट है की जब-जब गुणवत्ता के मानक की बात की जाती है तो समाज के बहुसंख्यक वर्ग को इस परिधि से बाहर मान लिया जाता है, यदि वे येन-केन-प्रकारेण इन संस्थानों में पहुच भी जाते है तो मेरिटवादी छात्र और अध्यापक इतना प्रगतिशीलता का परिचय देते है कि शारीरिक और मानसिक शोषण कर उन्हें आत्महत्या करने में मजबूर कर देते है, इन्साईट फाऊंडेशन   की रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार सालों में कुछ  दलित छात्रों ने AIIMS जैसे शिक्षा संस्थानों में आत्महत्या की है, आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है कि दलित छात्र  ही आत्महत्या करता है, अभी आप NII में निलेश  गवली की आत्महत्या को भूलें नहीं होंगे, यदि ये बिल पास हो गया तो फिर बहुसंख्यक वर्ग को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया जायेगा, सिर्फ यही नहीं ये बिल भारतीय संविधान के भाग-4 की मूल भावना को ख़ारिज करता है जिसमे सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ें वर्ग को प्रोत्साहित करने हेतु अनेक प्रावधानों का उल्लेख है. अब विदेशी शिक्षा संस्थान में वही प्रवेश पा सकेगा जो गुणवत्ता के मानकों पर खरा उतरता है, उसके कैपिटेशन फीस को भरने में सक्षम है.  क्या ये संस्थान समग्र विकास की अवधारणा को फलीभूत करते है, जरा सोचिएं..
इन संस्थानों से निकली प्रतिभा और देशी उच्च संस्थानों से निकली प्रतिभाओ के बीच घमासान होगा जिसमे फिर से एक का बलिदान करके दूसरे को तरजीह दी जाएगी. यानि हम अपनी ही प्रतिभाओं के बीच वर्गीकरण को तैयार है और ये सरकार द्वारा समर्थित होगा. अभी पब्लिक स्कूल और सरकारी स्कूल के बीच ही भेदभाव था अब आप उच्च शिक्षा संस्थानों में भी यही होगा. विभिन्न पदों में नियुक्ति करते समय भी आपके साथ भेदभाव होने वाला है, इसके लिए आप तैयार रहिये.
यूपीए सरकार इसे ‘ब्रेन ड्रेन’ को रोंकने हेतु एक रेडिकल कदम बता रही है, और मानती है कि ब्रेन ड्रेन की जगह ‘ब्रेन गेन’ होगा. मेरा सवाल सभी बुद्धिजीवी-पत्रकार-लेखक-टिप्पणीकारों  से ये है कि किस तरह से सरकार ब्रेन गेन करेंगी, सरकार का सिर्फ इतना प्रयास है कि छात्र जो पैसा बहरी देशो में खर्च करते थे अब वो यहीं करेंगे और सरकार को भी कुछ हिस्सा मिल जायेगा. लेकिन यदि सरकार समाज के सभी वर्गों के छात्रों हेतु समावेशी नीति नहीं बनाती है तो फिर से ब्रेन ग्रेन का वर्गीकरण हो जायेगा और फिर से सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े छात्र फिर से पिछड़े ही रह जायेंगे, क्या इन संस्थानों में सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के छात्रों को ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’ प्रदान करने से शोध की गुणवत्ता प्रभावित होगी?
अपने देशी उच्च शिक्षा संस्थानों में अक्सर छात्र तथा फैकल्टी ये कहते हुए पाए जाते है कि ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’  प्रदान करने से संस्थान की कीर्ति में कमी आती है, इसलिए इसे ख़त्म कर देना चाहिए, जब इस सिद्धांत के तहत आये छात्र विभिन्न विषयों में परीक्षा देते है  तो उस समय ये फैकल्टी शायद ही इस नीति का पालन करती है,  इतने उदारमना नहीं हो सकते, अब जब इस बिल में ऐसे कोई लाइन ही नहीं है जिससे समाज के सभी वर्गों के विद्यार्थियों को इसका लाभ मिले तो आगे बात करना बेमानी होगा. इस तरह से सरकार भी यह मानती है सामाजिक न्याय का प्रावधान करने से मेरिट तथा गुणवत्ता प्रभावित होती है. सरकार का ये भी कहना है कि इन संस्थानों में ‘ला आफ लैंड’ लागू होगा. इसका प्रभाव तो आरक्षण, कैपिटेशन फीस के रूप में तो देख ही रहे है, जब विदेशी संस्थानों से सम्बंधित कोई भी केस न्यायलय में जायेगा तो फिर विधायिका की न्यायपालिका में  छुट्टी. यानि इस बिल को पास करने वाली संस्था का फिर कोई  हस्तक्षेप नहीं होगा.
शिक्षा व्यवस्था में इस तरह का आमूलचूल परिवर्तन लाकर हम किस प्रकार का इण्डिया बनाने जा रहे है.