मेरा गाँव अब बूढा हो गया है.
पीपल के पेड़ के नीचे बनी चौपाल,
अब सूनी हो गयी है.
हर मोहल्ला और गली
नुक्कड़ और वो तालाब के किनारे का मैदान
जहाँ खेलते थे बच्चे और जवान
कबड्डी और क्रिकेट
जहाँ तय होती थी शर्ते
हार और जीत की
अब वो मैदान बूढा हो गया है.
क्या बच्चे, क्या जवान,
सब गए है बाहर
लड़ रहे अपनी जिंदगी से
दो रोटी की आस में
एक नौकरी की जुगाड में
एक आशियाने के ख्वाब में
अब तो शहर है ग्लोबल-गाँव,
और ये है सब बाशिंदे
इनके है अपने रंग-ढंग
इनके है अपने देवता
देवता भी है ग्लोबल.
मेरे गाँव के बच्चे और जवान
अब नहीं जाते गाँव,
अपनी दुनिया बना ली है
यहीं, हाँ यहीं
इस ग्लोबल देवता के
ग्लोबल गाँव में.
रहते है बेखबर, बेदर्द, बेफ़िकर,
अपनी मिट्टी और जड़ों से,
और उस गाँव से,
जो बूढा हो रहा है.
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