Monday, August 5, 2013

मंडल आयोग के 28 साल और पूंजीवाद के दौर में सामाजिक न्याय



पूरे देश में 7 अगस्त को ‘सामाजिक न्याय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। 7 अगस्त 1990 को तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का आदेश दिया था। मंडल आयोग की रिपोर्ट में प्रमुख रूप से 13 अनुसंशाओ का वर्णन है जिसमे अभी तक दो अनुसंशाये ही लागू हो पाई है।  भारतीय संविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकार  के अनु. 16(4) के तहत OBC को सरकारी नौकरियों में 27% आरक्षण तथा अनु. 15(4) के अनुसार शिक्षण संस्थानों में 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया है। अतः मंडल कमीशन की अनुसंशायें आकाश से टपक कर खजूर में लटक गयी है। बीते 22 सालों में देश की राजनीती में कई राजनैतिक, आर्थिक तथा सामाजिक बदलाव हुए है। दलित-पिछड़ों का राजनीतक उभार अब ग्राम पंचायत से लेकर संसद तक परिलक्षित होता है, बावजूद इसके मंडल कमीशन की सभी संस्तुतियों का लागू न होना एक संदेह को जन्म देता है. आखिर कौन सी मजबूरियां है जो आबादी के सबसे बड़े हिस्से को उसके वाजिब राजनैतिक, आर्थिक तथा शैक्षिक अधिकारों से वंचित कर रखा है? आरक्षण और सामाजिक न्याय कैसे एक-दूसरे के पूरक है? मंडल कमीशन ने कैसे जाति-आधारित शोषित समाज को एक बड़े वर्ग के रूप में परिवर्तित कर दिया?  इन सबकी पड़ताल करना जरूरी हो जाता है।

भारत में सामाजिक न्याय का जनक छत्रपति शाहूजी महाराज को कहा जाता है, जिन्होंने पहली बार अपने राज्य में शूद्रों और अछूतों को नौकरियों, प्रशासन में आरक्षण दिया था.
 भारत को आजादी मिलने के बाद पिछड़े तबकों (ST/SC/BC/Minorities)  ने अपने हक़-हकूक के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु के ऊपर काफी दबाव था कि देश के शोषित तबके को उनका वाजिब हक़ प्रदान करे। डा. भीमराव आंबेडकर ने अपने अथक प्रयासो से देश के शोषितों के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान कर गए,  लेकिन ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ के लिए संविधान  में एक आयोग के गठन की संभावना के अलावा और कुछ नहीं था। 
संविधान का अनु. 340 पिछड़े वर्गों की दशाओं के विश्लेषण के लिए एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है।

अनु. 340(1)-  राष्ट्रपति भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर सामाजिक तथा शिक्षित द्रष्टि से पिछड़े वर्गों की दशाओं के और जिन कठिनाईयों का वे सामना कर रहे है उनके अन्वेषण के लिए और उन कठिनायियों को दूर करने तथा उनकी दशा सुधरने हेतु संघ या किसी राज्य द्वारा जो उपाय किये जाने चाहिए उनके बारे सिफारिश करने के लिए, आदेश द्वारा एक आयोग नियुक्ति कर सकेगा जो ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बनेगा जो वह ठीक समझे और ऐसे आयोग को नियुक्ति वाले आदेश में आदेश द्वारा अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया परिनिश्चित की जाएगी।

अनु. 340(2)- इस प्रकार नियुक्त आयोग अपने को निर्देशित विषयों का अन्वेषण करेगा और राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देगा, जिसमें उसके द्वारा पाए गए तथ्य उपवर्णित किये जायेगे और जिसमें ऐसी सिफारिशें की जाएगी जिन्हें आयोग उचित समझे।

अनु. 340(3)- राष्ट्रपति इस प्रकार दिए गए प्रतिवेदन की एक प्रति, उस पर की गयी कार्यवाई को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित, संसद के प्रत्येक सदन में रखा जायेगा।

अतः अनु. 340 के अनुदेश के तहत 1953 में काका कालेलकर के नेतृत्व में एक ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ का गठन हुआ जो ‘पिछड़े’ वर्गों व जातियों की पहचान करेगा, भारत के समस्त समुदायों की सूची बनाएगा और उनकी समस्याओं का निरीक्षण करेगा तथा उनकी बेहतरी के लिए कुछ ठोस प्रस्ताव लायेगा। काका कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1955 में केंद्र सरकार को सौंप दिया लेकिन स्वनाम-धन्य समाजवादी प्रधानमंत्री नेहरु ने इसे लागू करना आवश्यक नहीं समझा. काका कालेलकर के ऊपर भी ये आरोप लगता है कि उन्होंने जान-बूझ कर ऐसी सिफारिशे प्रस्तुत की जो केंद्र सरकार को रास न आई। हालाँकि राज्य सरकारों को ये अथारिटी मिल गयी कि वे स्वयं पिछड़े वर्गों की सूची तैयार करे और इन्हें ‘विशेष अवसर की सुविधा’ प्रदान करे. (स्रोत-भारतीय संविधान, डी.डी. बसु)| काका कालेलकर कमीशन की नाकामियों के चलते दूसरे ‘बैकवर्ड क्लासेस कमीशन’ के गठन की जरूरत पड़ी। 1 जनवरी 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के समय राष्ट्रपति के आदेशानुसार बी.पी. मंडल (BC) के चेयरमैनशिप में दूसरा बैकवर्ड क्लासेस कमीशन का गठन हुआ जिसके अन्य सदस्य आर.आर. भोले, दीवान मोहनलाल, एल.आर. नाईक तथा के. सुब्रमनियम थे। पूरे देश में यह आयोग मंडल आयोग के नाम से प्रसिद्ध हुआ| मंडल कमीशन ने दिसंबर 1980 में अपनी रिपोर्ट  केंद्र सरकार को सौंप दिया।

मंडल कमीशन के प्रमुख उद्देश्य थे- सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिन्हित करने के लिए मानको को निश्चित करना, उनकी प्रगति के लिए महत्वपूर्ण अनुसंशाओं को प्रस्तावित करना, उनकी दशा सुधारने हेतु पदों और नियुक्तियों में आरक्षण क्यों जरूरी है, इसका निरीक्षण करना और कमीशन द्वारा प्राप्त तथ्यों को रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत करना। सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को चिन्हित करने के लिए मंडल कमीशन ने कुल 11 मानको को अपनाया जिन्हें प्रमुखतया 3 समूहों में वर्गीकृत जा सकता है- सामाजिक, शैक्षिक तथा आर्थिक. इस प्रकार मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना ने अनुसार 52% पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण की अनुसंशा की। (नोट- इस 52% पिछड़े वर्ग की आबादी में अल्पसंख्यकों की कुल आबादी 16.6% का 52% अल्पसंख्यक पिछड़े वर्ग को भी कुल आरक्षण 27% में समाहित किया गया)।  यहाँ मंडल कमीशन की प्रमुख अनुसंशाओं का उल्लेख करना चाहूँगा।


1-      अनु. 15(4) और 16(4) के तहत 50% आरक्षण की सीलिंग है और SCs/ STs को उनकी आबादी के अनुपात में 22% मिला हुआ है. अतः कमीशन OBCs के लिए 27% आरक्षण प्रस्तावित करता है. अनु. 15(4) और अनु. 29(2)- (अल्पसंख्यकों को सरंक्षण) राज्य के ऊपर कोई वैधानिक प्रतिबन्ध नहीं करता यदि वह सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए विशेष प्राविधान बनाये. इसी तरह अनु.16(4)  राज्य को नहीं रोकेगा यदि राज्य  राजकीय नौकरियों तथा नियुक्तियों में  सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व न होने से पदों तथा नियुक्तियों में उनके लिए आरक्षण की अनुसंशा करे।

2-      सरकारी नौकरियों में शामिल OBC  उम्मीदवारों को प्रोन्नति में भी 27% आरक्षण मिलना चाहिए।

3-      केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27% आरक्षण लागू किया जाये।

4-      OBC की आबादी वाले क्षेत्रों में वयस्क शिक्षा केंद्र तथा पिछड़ें वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले जाए. OBC  छात्रों को रोजगार परक शिक्षा  दी जाये।

5-       OBC की विशाल आबादी जीविका के लिए पारंपरिक तथा जातिपरक काम में लगी हुयी है. इनकी दयनीय आर्थिक हालत को देखते हुए इन्हें संस्थागत वित्तीय, तकनीकी सहायता देने तथा इनमें उद्यमी द्रष्टिकोण विकसित करने के लिए वित्तीय, तकनीकी संस्थाओं का समूह तैयार करे।

6-      प्रत्येक जाति परक पेशे के लिए सहकारी समितियां गठित की जाये जिनके तमाम कार्यकर्ता, कर्मचारी और अधिकारीगण उसी जातिगत पेशे से जुड़े होने चाहिए।

7-       जमींदारी प्रथा को ख़त्म करने के लिए भूमि सुधार कानून लागू किया जाये क्योंकि पिछड़े वर्गों की बड़ी जमात जमींदारी प्रथा से सताई हुयी है।

8-      सरकार द्वारा अनुबंधित जमीन को न केवल ST/ST को दिया जाये बल्कि OBC को भी इसमें शामिल किया जाये।

9-       OBC के कल्याण के लिए राज्य सरकारों द्वारा बनाई गयी तथा चलायी जा रही तमाम योजनाओ, कार्यक्रमों को लागू करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाये।

10-    केंद्र और राज्य सरकारों में OBC  के हितों की सुरक्षा के लिए अलग मंत्रालय/विभाग स्थापित किये जाये।

11-    आयोग की अनुशंसाओं का क्या परिणाम निकला, उन्हें कहाँ तक लागू किया गया इसकी समीक्षा 20 वर्ष के बाद की जाये।

1990 में जब प्रधानमंत्री विश्वनाथ सिंह ने मंडल कमीशन को लागू किया तो उच्च वर्णीय/ बुर्जुआ ताकतों को अपने राजनैतिक-आर्थिक वर्चस्व में एक जोर का झटका लगा नतीजन इन प्रतिक्रियावादी ताकतों ने वी.पी. की सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इन ताकतों ने आरक्षण विरोधी आन्दोलन पूरे देश में चलाया जिसका नेतृत्व  देश के कथित इलीट,कुलक, सामंत, डाक्टर, इंजिनियर, शिक्षकों ने किया. इसी समय देश में दो महत्वपूर्ण राजनैतिक  तथा आर्थिक बदलाव हुए। धार्मिक उन्माद को पूरे देश में इतना प्रचारित/प्रसारित किया गया कि कमंडल के आगे मंडल कमजोर पड़ गया। राजनीति का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण कर दिया गया अर्थात हिन्दू बनाम मुसलमान। लेकिन असलियत कुछ और थी, धर्म आधारित राजनीती का नेतृत्व हमेशा प्रभु वर्ग ने किया है जो हर धर्म का सबसे ऊपरी तबका होता है, अर्थात धर्म के निचले पायेदान मे पाए जाने वाले लोगों का राजनैतिक व्यवस्था के निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में कोई योगदान नहीं रहता। उनका इस्तेमाल धार्मिक उन्माद फ़ैलाने में, भिन्न-भिन्न धार्मिक पहचान के आधार पर एक दुसरे को लड़ाने में किया जाता है। यदि मंदिर-मस्जिद विवाद से दुष्प्रभावित समूहों के आंकड़े ईमानदारी से इकट्ठे किये जाये तो सबसे ज्यादा निम्न वर्णीय/ सर्वहारा लोग ही होंगे। इस प्रकार सामंती ताकतों तथा प्रभु वर्ग ने अपने वर्चस्व को बनाये रखने करने के लिए पूरे प्रयास किये. दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव आर्थिक था- देश में LIBERALISATION, PRIVETISATION और GLOBALISATION को ख़ुशी ख़ुशी लाया जाता है। पब्लिक सेक्टर  का डि-रेगुलराइजेशन आरम्भ हो जाता है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण विषयों को आम बजट में कोई खास जगह नहीं दी जाती है। इन दोनों का तेजी से निजीकरण शुरू हो जाता है। देश की निजी कंपनियों को अपार प्रोत्साहन दिया जाता है और उन्हें किसानों से कई गुना ज्यादा सब्सिडी दी जाती है। पब्लिक सेक्टर तथा सरकारी संस्थानों के निजी हाथों में चले जाने से वहां आरक्षण का कोई स्कोप ही नहीं बचता है, अतः देश की प्रतिक्रियावादी ताकतों ने अपने निजी हितों के सरंक्षण में देश की प्रगति पर कुठाराघात कर दिया। जबकि इन प्रतिक्रियावादी ताकतों को आरक्षण को दक्षिण अफ्रीका में लागू  “AFFIRMATIVE ACTION”  के रूप में देखना चाहिए। 
जब दक्षिण अफ्रीका  में अश्वेतों ने अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन शुरू किया और राजनैतिक-आर्थिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक यानि हर क्षेत्र में हिस्सेदारी की मांग की तो वहां के बुर्जुवा वर्ग ने स्वयं बढ़कर उन्हें आर्थिक-राजनैतिक  तथा शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दे दिया. दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत बहुसंख्यक है अतः उनके हक़-हकूक को किनारे करना देश को पतन के रास्ते पर ले जाना है। देश की प्रगति के लिए सभी देशवासियों की प्रगति आवश्यक है, आज वहां श्वेत तथा अश्वेत दोनों मिलकर देश की उन्नति में लगे हुए है। दक्षिण अफ्रीका को 1992 में आजादी मिली और आज वो अफ्रीका महादेश के एक विकसित देश के रूप में उभर रहा है। लेकिन भारत ने वो मौका खो दिया. यहाँ का  अल्पसंख्यक-बुर्जुआ वर्ग ने अपने टूटते वर्चस्व को बचाने के लिए अपना अंतिम प्रयास कर रहा है और देश को पूंजीवादी कार्टेल के हाथो में बेंचने के लिए तैयार बैठा है।

ये प्रतिक्रियावादी ताकते नब्बे के दशक में देश को धार्मिक उन्माद की भट्टी में झोंक दिया, और चली आ रही मिश्रित अर्थव्यवस्था की ‘शाक थेरेपी’ कर पूंजीवादी अर्थव्यस्था में बदल दिया। इन्होने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिया कि यह रिपोर्ट पूरी तरह ‘असंवैधानिक’ है। 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में नौ जजों की खंड-पीठ ने मंडल कमीशन रिपोर्ट की असंवैधानिकता को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया और सरकार को निर्देश दिया कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को इनैक्ट करे। 1 फरवरी 1993 को 5 सदस्यों वाले आयोग का गठन हुआ, जिसके प्रथम चेयरमैन जस्टिस आर.एन. प्रसाद बने। इंदिरा साहनी केस ने दो आवश्यक मुद्दों की तरफ ध्यान खींचा-1-पिछड़े वर्ग को हिन्दू धर्म के अन्दर अनेक जातियों को उनके पेशे, गरीबी, स्थान विशेष में आवास करना और अशिक्षा के कारण चिन्हित किया जा सकता है। 2- पिछड़ा वर्ग में आने के लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान कर दिया. यदि पहले मुद्दे कि तरफ देखा जाये तो कोर्ट इस बात को मानता है कि पिछड़े वर्गों को हिन्दू धर्म के अन्दर देखा जा सकता है, यानि निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि पिछड़े वर्ग में आने वाली जातियां हिन्दू धर्म को मानने वाली है ऐसा इसलिए कि इस वर्ग को आरक्षण उनके पेशे, गरीबी, स्थान विशेष में आवास करना और अशिक्षा के कारण दिया गया है, न कि उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर। इस मुद्दे पर और भी बहस की जरूरत है। दूसरा मुद्दा ‘मलाईदार परत’ का है जो बुर्जुआ वर्ग की पिछड़े वर्गों के खिलाफ एक साजिश थी। क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट में कही भी मलाईदार परतका उल्लेख नहीं है। अतः क्रीमी लेयर का बंधन लगाकर बुर्जुआ वर्ग ने देश के बहुसंख्यक सर्वहारा वर्ग के बीच बन रही एकता को तोड़ दिया। मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश ‘केंद्र और राज्य  सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी  तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए  OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 % आरक्षण लागू किया जाये’ को केंद्रीय संस्थानों में 2007 में लागू किया गया। लेकिन विश्वविद्यालयों तथा अन्य इलीट शिक्षा संस्थानों में जातिवादी प्रशासन के वर्चस्व के चलते इसे पूर्ण रूप से लागू नहीं किया जा सका। एक आंकडे के मुताबिक पूरे देश के केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में OBC कोटे से मात्र 2 प्रोफ़ेसर है. देश के विभिन्न मंत्रालयों, अन्य स्वायत्तशासी संस्थाओं तथा पब्लिक सेक्टर में OBCs क्लास-1 नौकरियों में 4.69%, क्लास-2 में 10.63%, क्लास-3 में 18.98% तथा क्लास-4 में 12.55% है। इन दो अनुसंशाओ के अतिरिक्त अन्य अनुसंशाओ मसलन भूमि सुधार तथा OBC को आर्थिक रूप से सबल बनाने के लिए केंद्र/राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित अनुदान आदि को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया।

मंडल कमीशन की अनुसंशाओ को लेकर देश के प्रमुख राजनैतिक दलों के क्या रवैया रहा, इसे जानना भी जरूरी है. 1992 में जब कमीशन की सिफारिशों को लागू किया गया तो कांग्रेस की तत्कालीन नरसिम्हाराव सरकार ने इसका श्रेय लेने की कोशिश की| क्रीमी लेयर के बंधन के खिलाफ कुछ नहीं किया। OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए विश्वविद्यालयों में 27% आरक्षण लागू किया जायेको केंद्रीय संस्थानों में 2007 में लागू किया गया तो सामान्य वर्ग के लिए 27% अतिरिक्त सीटों को बढ़ा दिया. तथा OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27 % आरक्षण लागू करने के लिए अवधि निश्चित की। कहीं–कहीं तो इसे 2012 तक नहीं लागू किया जा सका। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में यह 2011 को लागू हुआ। 2012 के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में 4.5% का अल्पसंख्यक (OBC) कार्ड खेला लेकिन असफल रही। दूसरी प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी भाजपा धर्म-नीति-राजनीती करती है। उसने मंडल कमीशन की शिफरिशों को लागू करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। प्रमुख वामपंथी दल माकपा तो अभी तक OBCs को ‘सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़ा  मानती है और क्रीमी-लेयर के बंधन का समर्थन करती है (माकपा का प्रेस वक्तव्य, 17 मई 2006)।  पश्चिम बंगाल में माकपा की 34 साल तक सरकार रही लेकिन OBC को एक वर्ग के रूप स्वीकार नहीं कर पाई जिससे माकपा के चाल,चरित्र और चेहरे में उच्च वर्णीय/उच्च वर्गीय ठसक देखी जा सकती है। माकपा ने 2011 में OBCs के लिए 17% आरक्षण लागू किया जिसमे सभी मुसलमानों को ‘पिछड़े वर्ग’ के रूप में देखा गया है। अन्य राजनैतिक दल जिनका नेतृत्व दलित-पिछड़ा वर्ग के लोगों के हाथों में है, वे मंडल कमीशन को राजनैतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। मुलायम यादव, लालू प्रसाद, नितीश कुमार तथा मायावती ने कभी भी मंडल कमीशन की सभी अनुसंशाओ को लागू करने के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई। इन सभी का संघर्ष कुर्सी के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गया है। इन सभी दलों के पास आर्थिक प्रोग्राम का आभाव है| ये सभी भूमि सुधार कानून को लागू करवा सकते है और पिछड़े वर्गों की राजनैतिक-आर्थिक-शैक्षिक उन्नति के लिए कई महत्वपूर्ण काम कर सकते है।  अब जरूरत है एक नए नेतृत्व की जो सामाजिक न्याय, हिस्सेदारी तथा व्यवस्था परिवर्तन हेतु एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन करें।

देश का सर्वहारा वर्ग निरादर तथा गरीबी से ग्रसित है। वर्तमान  समय की जरूरत है कि ST/SC के आरक्षण के साथ OBCs  की राजनैतिक-आर्थिक उन्नति के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूर्णतया लागू की जाये। OBC आरक्षण का विस्तार सभी सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ों वर्गों तक होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार OBCs के रिजर्वेशन के लिए क्रीमी लेयर के रूप में जो आर्थिक रेखा खीच दी गयी है वो संविधान के महत्व को कम कर रही है तथा ये पूरी तरह से अ-संवैधानिक है।

'क्रीमी-लेयर' शब्द न तो संविधान और न ही मंडल कमीशन कि रिपोर्ट में अंकित है इसलिए क्रीमी-लेयर की कटेगरी को पूरी तरह से ख़त्म कर देनी चाहिए। ST और SC कमीशन की भांति OBC रिजर्वेशन के कार्यान्वन की देख-रेख हेतु संसदीय सब-कमेटी बने. राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को SC और ST कमीशन की तरह पूर्ण संवैधानिक शक्तिया प्रदान की जाये जिससे OBC हेतु आरक्षण के साथ खिलवाड़ करने वाले को कड़ी से कड़ी सजा मिल सके और चेयरमैन के पद पर अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की जगह राजनीती, शिक्षा या मीडिया क्षेत्र के महत्वपूर्ण लोगों की नियुक्ति हो। आरक्षण के दायरे का विस्तार निजी क्षेत्रों में किया जाये, जिसमें प्रमुख रूप से लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया में और NGOs  में दलित-पिछड़ों की भागेदारी को सुनिश्चित किया जाये। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन हो तथा उसमें आरक्षण के सिद्धांत को पूरी तरह से लागू करना चाहिए। देश के सभी धार्मिक संस्थानों का सरकारीकरण कर दिया जाये, पुजारी पद के लिए ओपन कम्पटीशन हो। जाति-आधारित जनगणना जल्द से जल्द करवाई जाये। जिससे ये सभी शोषित तबकों के बीच मजबूत गठजोड़ हो| यही गठजोड़ बुर्जुआ, पूंजीवाद, सामंतवाद तथा जातिवाद से लड़कर सामाजिक क्षेत्र में मानववाद तथा आर्थिक क्षेत्र में समाजवाद को पुनः स्थापित करेगा।

 Contact @ anoops.patel@gmail.com, 9415455820