Friday, April 10, 2015

भारतीय जन-मानस के महात्मा- ज्योतिराव फूले

आधुनिक भारत के निर्माता और ‘सामाजिक क्रांति के पिता’  महात्मा ज्योतिराव  फूले का जन्म 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में गोविंदराव जी के घर पर हुआ था. ज्योतिराव जब एक साल के थे तभी उनकी माँ का परिनिर्वाण हो गया था. गोविन्दराव जी  अपने समाज के सपन्न व्यक्ति थे. ज्योतिराव जब अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद अपने पिता के व्यवसाय में हाँथ बंटाने लगे. उनके पडोसी जो कि प्रायः शेख परिवार और इसाई परिवार थे, ज्योतिराव की तीव्र प्रतिभा को देखते हुए  आगे पढने के लिए प्रोत्साहित  किया. ज्योतिराव ने 1841 पुणे के स्काटिश मिशन हाई स्कूल में दाखिला लिया. उनके ऊपर मिशनरी शिक्षा का बहुत प्रभाव पड़ा. वे भारतीय समाज में व्याप्त अशिक्षा और असमानता के प्रति चिंतित हो उठे. जब ज्योतिराव 13 वर्ष के थे तभी उनका विवाह सावित्रीबाई से हो गया था. सावित्रीबाई को ज्योतिराव फूले ने घर में ही पढाया और उन्हें आधुनिक शिक्षा दी. बाद में सावित्रीबाई भारत की प्रथम महिला शिक्षक बनी.
 1848 में हुयी घटना ने ज्योतिराव को झकझोर दिया.  एक ब्राह्मण साथी ने बरात में ज्योतिराव फूले को आमंत्रित किया था. बारात में जब उनकी जाति का पता लगा तो बाराती लोगों ने उनका अपमान किया. ज्योतिराव के मन को  गहरी चोट लगी. ज्योतिराव ने प्रण  किया वे अपनी जिंदगी पिछड़े और महिलाओं के उत्थान में लगा देंगे.
1848 में ज्योतिराव ने पुणे में पहला स्कूल खोला. पिछड़े वर्ग की  लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। पिछड़े समाज की  लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया।



महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। उनकी किताब ‘किसान का कोड़ा’ उस समय के किसानो, जिन्हें फूले ने  कुंडबी (कुर्मी) लिखा, उनकी  बदहाली का चित्रण किया है. फूले ने छत्रपति शिवाजी को किसानो का प्रेरणास्रोत बताया. शिवाजी के राज्यकाल में किसान ही उनकी सेना में सिपाही होते थे. शिवाजी स्वयं एक कुर्मी-किसान परिवार से थे इसलिये वे किसानों को अपने परिवार का अंग मानते थे. फूले जी छत्रपति शिवाजी को ‘लोकराजा’ बोलते थे.  फूले ने अपनी रचनाओं में    पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीब किसानों  के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा  फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।

स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने का उन्होंने समर्थन किया।

फूले साहब का प्रथम उद्देश्य था- एक समान  प्राथमिक  शिक्षा. उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के लिए लिए शिक्षक  की योग्यता और पाठ्यक्रम  पर ध्यान दिया. उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को  भारत की महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त है. उनके लिए शिक्षा सामाजिक बदलाव का एक माध्यम थी.  बाबा साहेब आंबेडकर फूले को अपना गुरु मानते है. उनका मानना था सामाजिक बदलाव की निरंतरता तभी बनी रह सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को पूरी शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त  हो.
विद्या बिना मति गयी,
मति बिना गति गयी
गति बिना नीति गयी
नीति बिना संपत्ति गयी,
इतना घोर अनर्थ मात्र,
अविद्या के ही कारण हुआ.

उनके समय में महिलाओं और पिछड़ी जातियों के लिए पढाई करना दिन में सपने देखने जैसा था. महात्मा फूले ने जान की परवाह किये बिना जन-शिक्षा का मिशन शुरू किया.. आज पूरे विश्व में एक सामान शिक्षा की मुहिम चल रही है.
फूले को विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन का जनक माना जाता है.  विधवाओं के लिए अपने आश्रम खोले और बाल विवाह प्रथा को बंद करवाने के लिए आन्दोलन किया. फूले दम्पति ने विधवाओं के पुनर्वास और अनाथ बच्चों के लिए कई अनाथालय खोले. यहाँ तक कि 1873 में  एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को उन्होंने गोद लिया और उसका नाम  यशवंत फूले रखा.
महात्मा फूले ने 1873 अपने अनुयायी और समर्थको के साथ ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की. सत्य शोधक समाज का प्रमुख उद्देश था-पिछड़े, दलित और महिलाओं को शोषणकरी व्यवस्था से छुड़ाना और उन्हें शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाना. 1873 में उनकी महान रचना ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुयी. 1876 में पुणे नगर निगम के पार्षद बने. उस समय पूरा पूना प्लेग महामारी से ग्रस्त था. फूले दम्पति ने प्लेग रोगियों की अथक सेवा की और स्वयं ज्योतिराव फूले की म्रत्यु 28 नवम्बर 1890 को प्लेग महामारी से हो गयी. फूले साहब ताउम्र शोषितों को लिए अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे. उन्होंने देशमें शिक्षा के आन्दोलन को जन्म दिया जो अनवरत चल रहा है. उन्हें भारत में ‘सामाजिक क्रान्ति’ का पिता कहा जाता है.

ज्योतिराव फूले  भारत में एकसमान शिक्षा  प्रणाली और भारत में किसानो के आदोलनो के सूत्रधार बने. वे भारत में सामाजिक न्याय के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते थे और दलित-पिछडो और महिलाओं के हित और अधिकारों के लिए लड़ा. बाबासाहेब आम्बेडकर उन्हें अपना गुरु मानते थे. आधुनिक भारत में  समतामूलक  समाज की  कल्पना  ज्योतिराव फूले के बिना पूरी नहीं होती.  महात्मा गाँधी ने ज्योतिराव फूले को ‘महात्मा’ की उपाधि दी थी और कहा था कि ज्योतिराव सच्चे अर्थो में महात्मा थे. भारत सरकार को  समतामूलक समाज के ऐसे महात्मा को भारत रत्न से  सम्मानित करना चाहिये.