भारतीय संविधान में
न्यायपालिका को संविधान का रक्षक, व्यक्ति के
अधिकारों के रक्षक के रूप में उल्लेखित किया गया है. न्यायपालिका और न्यायधीश को
भारतीय जन-मानस में एक आदरणीय के रूप में देखा जाता है, न्यायपालिका को ये भी शक्ति प्राप्त है कि यदि कोई निर्णय संविधान
की अवमानना कर रहा है तो उसकी न्यायिक पुनर्व्याख्या कर सकता है...
लेकिन पिछले तीन दशक से न्यापालिका के
ढांचा-सांचा में आमूलचूल परिवर्तन हुए है. अब वह संसद को प्रदत्त कार्य और
अधिकारों पर हस्तक्षेप करने लगी है, ऐसा लगता
है कि अब संसद के ऊपर न्यायपालिका एक संप्रभु के रूप में मौजूद है.
ऐसा अकस्मात् नहीं हुआ है, बौद्धिक वर्ग आसानी से यह कह देता है कि लोकतांत्रिक मूल्य का
हास हुआ है, राजनितिक दल और राजनैतिक व्यक्तित्व का
पतन हुआ है इसलिए आज न्यायपालिका को आगे आना पड़ रहा है. दर-असल 1980 के दशक से भारतीय समाज के शोषित तबके का एक राजनितिक उभार हुआ, इससे यथा-स्थिति राजनैतिक-सामाजिक-प्रशासकीय व्यवस्था भी छिन्न
भिन्न हुयी, लोगों में सम्मान और हक की चेतना जाग्रत
हुई जिससे उन्होंने अपने अधिकारों की मांगो हेतु राज्य को तथा सत्ता-धीशों को
चुनौती देना प्रारंभ किया. चूंकि लोकतंत्र में बहुमत तथा बहुजन की आवश्यकता और
मांगो की पूर्ती करना व्यवस्था का कर्तव्य बनता है इसलिए सत्ता-धीश बहुमत के दबाव
में आकर , विवश होकर उनकी मांगो को पूरा करना शुरू
करते है. तभी अचानक न्यायपालिका बीच में आ जाती है और उसके हस्तक्षेप के आगे
जम्हूरियत की सबसे बड़ी संस्था संसद भी नतमस्तक हो जाती है.
ऐसा क्यों---
भारतीय न्यायपालिका के बारे में ये कहा
जाता है कि आज तक जो भी नामी गिरामी वकील-जज हुए है, उनके सम्बंधित परिवारों कि संख्या 100 से भी कम है. यानि एक सैकड़ा से कम परिवार के लोगो का
न्यायपालिका में प्रभुत्व है और इनकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत अति कुलीन तंत्र वाली
है. इसका मतलब न्यायपालिका ही ऐसी जगह है जहाँ आजादी के 64 साल बाद भी सामाजिक न्याय का सिद्धांत और प्रजातंत्रीकरण
लागू नहीं हो पाया है. आज टाटा-बिडला-अम्बानियों, राजनैतिक इलीट को जनता के गुस्से से राहत कौन
देता है... वो संसद नहीं न्यायपालिका होती है.
सामाजिक न्याय और न्यायपालिका
जब न्यायपालिका में सामाजिक न्याय का
सिद्धांत लागू ही नहीं हुआ तो फिर उसका उल्लंघन सबसे ज्यादा कौन करेगा, इसके लिए ज्यादा दिमाग लगाने कि जरूरत नहीं है. आज तक SC/ST के 22.5 % संवैधानिक आरक्षण नहीं लागू हुआ है तो क्या न्यायपालिका इसके लागू
करवाने हेतु हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. गरीब,अ-हिन्दू आदिवासियों के ऊपर सत्ता-बाजार गठजोड़ का जो भयानक और
अमानवीय हमले (हाल ही में पोस्को, उड़ीसा
मामले को देख सकते है) हो रहे है तो उनकी जिन्दगी-जीविका कि रक्षा हेतु हस्तक्षेप
नहीं करना चाहिए.
ये भी तय है कि आरक्षण व्यवस्था में
सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन हेतु अंतिम विकल्प नहीं है. लेकिन आरक्षण से ही समाज के
शोषित तबके को भी व्यवस्था के पद-सोपानों में प्रतिनिधित्व मिलता है. व्यवस्था में
निर्णय-निर्माण के समय यदि समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व न हो तो फिर कोई भी
निर्णय न्यायिक रूप में लागू नहीं होगा. (उदा.- यदि 'मैला ढोने वाले' समुदाय के
बेहतरी के लिए नीति-गत निर्णय लिए जा रहे हो और इस समुदाय का एक भी प्रतिनिधि
शामिल न हो तो फिर प्रस्तावित नीतियां, फैसलें उस
समुदाय के पक्ष में शायद ही हो)
भारतीय समाज के सामाजिक-शैक्षणिक रूप से
पिछड़े हुए वर्ग के लिए संविधान में 93वा संशोधन
कर उन्हें 27%
'विशेष अवसर' कि सुविधा दी जाती है ताकि 'scientific value' पैदा कर देश और समाज कि प्रगति में अपना योगदान दे सके लेकिन 2006 से लेकर आज तक इसको पूर्णरूपेण लागू नहीं किया है. और इसमें
न्यायपालिका ही सबसे बड़ी बाधा के रूप में आती है. जस्टिस अशोक ठाकुर से लेकर
जस्टिस दलवीर भंडारी तक (..आगे भी सिलसिला चलता रहेगा) ने हमेशा क्रीमी-लेयर तथा
मेरिट के नाम पर इस संवैधानिक संशोधन को लागू नहीं होने दिया है. आखिर कब तक न्याय
की सर्वोच्च अदालत सामाजिक न्याय के साथ लुका-छिपी का खेल खेलेगी..
सामाजिक अन्याय और सामाजिक गैर बराबरी
के खिलाफ एक ऐसी लड़ाई है जिसमे शोषित-पीड़ित भाई-बहन खुद भाग नहीं लेते, यानि अपने अस्तित्व से सम्बंधित अधिकारों तक के लिए वो नहीं
लड़ सकते. उन्हें इसका अंदाजा ही नहीं कि देश का प्रभु वर्ग किस महीनी से उनके
अधिकारों की हत्या कर रहा है और निजी हांथो में बेच दे रहा है.
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