Friday, July 15, 2011

अन्ना और अन्न


अन्ना ने भरी हुँकार,
ख़त्म करेंगे भ्रष्टाचार.
लोकपाल विधेयक उनका सपना,
हरामखोरों को होगा हटना.
सरकार भी हुई चौकन्ना, मिडिया ने किया है दिन-रात काम.
प्रभु वर्ग का मिला समर्थन, छा गए सर्वत्र अन्ना अन्ना.
लेकिन…
यदि अन्ना ने सोचा होता-
कौन है ये हरामखोर?
कौन है ये सरकारी चोर?
कैसे ये पनपते है?
कौन है इनका सरदार?
हमें पता है तुम्हे पता है, देश की जनता का हाल.
एक रुपईया चलता है,
शहर से गावों की ओर, चलते-चलते कटते-कटते,
दस पईसा उसे मिलता है.
कौन खा गया बड़ा हिस्सा,
जो है इसका जिम्मेदार,
वो ही है भ्रष्टाचारी,
वो ही बड़ा हरामखोर..
मेरे गाँव के मंगलू, रामू, नफीसा चाची और कलुआ काका.
चल देते है शहर की ओर,
दो रोटी के जुगाड़ में,
एक आशियाने के ख्वाब में,
जब वे गाँव से निकलते है, सोचते है यही हर बार.
मेरे गाँव के मंगलू, रामू. नफीसा चाची और कलुआ काका.
हाड़-तोड़ मेहनत वो करते,
सेठ को खुश रखते है,
काम से जब लौट के आते,
राशन लेने बाज़ार वो जाते.
जब पूंछते है अन्न का दाम, उनकी घिग्घी बांध जाती है, होश फाख्ता हो जाते है,
घर आकर चूल्हा जलाते,
पेट की वो क्षुधा मिटाते.
देश में अन्न की कमी नहीं है, अन्न मिल सकता है सबको.. बशर्ते…
अन्न भण्डारण हो जाये सही से, वितरण हो सही ढंग से, बिचौलियों को मार भगाओ,
यदि ये उत्पात मचाये,
इनकों फांसी पर लटकाओ, नफीसा, कलुआ की भूख मिटाओ,
भूख ‘वर्गीय’ नहीं होती,
ऐसा कहते है जो लोग,
उनके अपने स्वार्थ है, उन्हें चाहिए छप्पन भोग, इसी को कहते है वो भूख,
पर अपने मंगलू, रामू का क्या- यदि वो पा जाये दो रोटी,
साथ में हो दाल, तरकारी.
यही खाकर वो खुश रहते है,
यही है उनका छप्पन भोग.
उन्होंने भी अन्ना का नाम सुना है, सोच रहे है कि एक दिन-
वे अन्ना के पास जायेंगे, अपना दुखड़ा रोयेंगे,
कुछ तो अन्न पा जायेंगे,
वे सोचते रहते है कि-
अन्ना, अन्न का बड़ा ‘भाई’ है, गरीबों का गुसांई है.
भूख मिट गयी तो,
मिट जायेगा भ्रष्टाचार,
देश सम्रद्ध हो जायेगा,
न कोई बन्दूक उठाएगा,
न किसी को मौका मिलेगा,
कि करें त्रिशूल का व्यापार.
‘बहुजन’ की विनती है अन्ना से, कि अन्न की तरफ दे वे ध्यान, करोड़ों उठेंगे हाँथ,
दुवाये मिलेगी एक साथ,
कि अन्ना तुम संघर्ष करों, हम तुम्हारे साथ है -२

शैक्षणिक सुधार के नाम पर लूटने की आजादी

अभी हाल में ही  अनिल काकोडकर के नेतृत्व वाली कमेटी ने भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों (IITs ) की फीस पांच गुना बढ़ने का प्रस्ताव किया है, उनका कहना है इससे वे सरकारी अनुदान में निर्भर नहीं रहेंगे और पूरी स्वायत्ता से काम करेंगे, जिससे देश को अच्छी प्रतिभायें मिलेंगी. यानि एक और ‘रेडिकल’ कदम. इसके पहले यू पी ए सरकार संसद में  ’विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010 ‘ पेश ही कर चुकी है और उसमें अंतिम वैध मुहर लगना बाकी है. वैश्वीकरण  के दौर में शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन को आप कैसे रोकेंगे भला.
UPA सरकार ‘विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010′  का तहेदिल से स्वागत कर रही है, और इसे शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन बता रही है, परिवर्तन तो पक्का है, शिक्षा क्षेत्र को भी ओपन मार्केट की तरह खोल दिया जायेगा, आओ पैसा लगाओ और मुनाफा कमाओ. जहाँ उच्च शिक्षा में इनरोलमेंट का अनुपात  केवल १२% हो, जहाँ कैपिटेशन फीस 1000000 रु. से कम न हो.
जहाँ गुणवत्ताकारी शोध  के नाम  में गरीब,सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ें वर्ग (SEBCs )  के लिए कोई स्कोप न हो.
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि इस देश को 1000 नए विश्वविद्यालयों कि जरूरत है, जबकि इस देश में 612 जिले है यानि एक जिले के हिस्से में 3 /2 से अधिक विश्वविद्यालय  मिलेंगे. कपिल सिब्बल के इस बयान के क्या निहितार्थ हो सकते है.
देश में शिक्षागत ढांचा अभी भी उतना ख़राब नहीं है, जितना इसे ख़राब करने कि कोशिश कि जा रही है. पिछले 10  सालों में ढांचागत विकास में भी बदलाव आया है, अब स्कूलों का निर्माण पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (P-P-P )  के तहत हो रहा है, जब निजी क्षेत्र के खिलाडी अपना पैसा लगायेंगे तो उससे भरपूर मुनाफा भी वसूलना चाहेंगे , मसलन आगे दुकान पीछे स्कूल का भी सिद्धांत चलेगा, शैक्षणिक परिवेश से इनका कोई सरोकार नहीं रहेगा, बावजूद इसके म्युनिसिपलिटी/नगर निगम का स्कूल हमेशा दोयम दर्जे का  माना जाता है, जब नीति-निर्माता अपने नौनिहालों को फर्राटेदार अंग्रेजी वाले स्कूलों में ही भेजेंगे और उनको उन्हें ये सिखायेंगे कि ” my son! you are better than this ragpicker student, Don’t touch him/her, they are very dirty people, you know i am your papa.” तब आप पिछड़ों और दलित के बच्चो के बारे में क्या सोचेंगे. देश में पहले से ही जो शैक्षणिक ढांचा है आप उसमें सुधार नहीं करेंगे, जिम्मेदारियों से भागना कितना आसान है.  ये है प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन.
अब आइये उच्च शिक्षा कि ओर:

ग्लोबल एजुकेशन डाइजेस्ट , 2009 (UNESCO ) के अनुसार भारत  में उच्च शिक्षण संस्थानों में समग्र नामांकन अनुपात 12 % है, जबकि वैश्विक  अनुपात 23 % है. दूसरें देशों चीन में 23 %, अमेरिका में 82 % और क्यूबा में 109 % है. देश में इंजीनियरिंग कोर्स के लिए कैपिटेशन फीस दस लाख रु. तक, MBBS के लिए पचास लाख रु. तक, कला तथा विज्ञानं के कोर्से की फीस 5 लाख रु. तक है. इन उच्च  शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए 22 .5 % प्रतिनित्धित्व की संवैधानिक व्यवस्था है और ‘सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े(SEBCs)’ वर्ग के लिए 27 % है, लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा संस्थानों में कुछ खास वर्ग/जातियों के छात्रों कि संख्या सर्वाधिक है.  SEBCs के लिए 27 % आरक्षण कि बात की गयी लेकिन 100 % के अन्दर नहीं बल्कि 127 % सीटें बढाकर. इसके बावजूद इस वर्ग के छात्रों की संख्या 12 % है,  यानि 54 % सीटें बढाकर खास वर्ग ने अपने लिए 42 % सीटें बढ़ा ली.  उसके बाद साजिश के तहत एक ही बार में न लागू कर इसे  प्रति वर्ष 9 % की दर 3 सालों में लागू करने की बात की गयी.
सूचना के अधिकार के तहत हमें पता चलता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 2 .7 % SEBCs और     9 .7 % SC /ST टीचर है. तो सवाल ये उठता है कि शेष 90 टीचर किस वर्ग/जाति से आते है, ये है उच्च शिक्षा संस्थानों कि हकीकत. उच्च शिक्षा संस्थानों में 100 % प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सन 2000 से ही शुरू है तथा P-P-P (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप) की भी प्रमोट भी कर रही है, ऐसे में इस बिल के पास होने से और क्या आमूलचूल परिवर्तन होने वाला है-
*देश में फिर से गुणवत्ता तथा मेरिट का एक और मानक तय किया जायेगा ताकि हमारे छात्र वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अव्वल नंबर पायें.
*विदेश में अध्ययनरत छात्र को अब वही मेरिट तथा उच्च गुणवत्ता की शिक्षा खुद विदेशी शिक्षा संस्थान चलकर आपके पास आएंगे, इससे आप कम खर्च में ही वही डिग्री देंगे, आप भी खुश और सरकार भी.
इसके परिणाम क्या होंगे-

स्पष्ट है की जब-जब गुणवत्ता के मानक की बात की जाती है तो समाज के बहुसंख्यक वर्ग को इस परिधि से बाहर मान लिया जाता है, यदि वे येन-केन-प्रकारेण इन संस्थानों में पहुच भी जाते है तो मेरिटवादी छात्र और अध्यापक इतना प्रगतिशीलता का परिचय देते है कि शारीरिक और मानसिक शोषण कर उन्हें आत्महत्या करने में मजबूर कर देते है, इन्साईट फाऊंडेशन   की रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार सालों में कुछ  दलित छात्रों ने AIIMS जैसे शिक्षा संस्थानों में आत्महत्या की है, आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है कि दलित छात्र  ही आत्महत्या करता है, अभी आप NII में निलेश  गवली की आत्महत्या को भूलें नहीं होंगे, यदि ये बिल पास हो गया तो फिर बहुसंख्यक वर्ग को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया जायेगा, सिर्फ यही नहीं ये बिल भारतीय संविधान के भाग-4 की मूल भावना को ख़ारिज करता है जिसमे सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ें वर्ग को प्रोत्साहित करने हेतु अनेक प्रावधानों का उल्लेख है. अब विदेशी शिक्षा संस्थान में वही प्रवेश पा सकेगा जो गुणवत्ता के मानकों पर खरा उतरता है, उसके कैपिटेशन फीस को भरने में सक्षम है.  क्या ये संस्थान समग्र विकास की अवधारणा को फलीभूत करते है, जरा सोचिएं..
इन संस्थानों से निकली प्रतिभा और देशी उच्च संस्थानों से निकली प्रतिभाओ के बीच घमासान होगा जिसमे फिर से एक का बलिदान करके दूसरे को तरजीह दी जाएगी. यानि हम अपनी ही प्रतिभाओं के बीच वर्गीकरण को तैयार है और ये सरकार द्वारा समर्थित होगा. अभी पब्लिक स्कूल और सरकारी स्कूल के बीच ही भेदभाव था अब आप उच्च शिक्षा संस्थानों में भी यही होगा. विभिन्न पदों में नियुक्ति करते समय भी आपके साथ भेदभाव होने वाला है, इसके लिए आप तैयार रहिये.
यूपीए सरकार इसे ‘ब्रेन ड्रेन’ को रोंकने हेतु एक रेडिकल कदम बता रही है, और मानती है कि ब्रेन ड्रेन की जगह ‘ब्रेन गेन’ होगा. मेरा सवाल सभी बुद्धिजीवी-पत्रकार-लेखक-टिप्पणीकारों  से ये है कि किस तरह से सरकार ब्रेन गेन करेंगी, सरकार का सिर्फ इतना प्रयास है कि छात्र जो पैसा बहरी देशो में खर्च करते थे अब वो यहीं करेंगे और सरकार को भी कुछ हिस्सा मिल जायेगा. लेकिन यदि सरकार समाज के सभी वर्गों के छात्रों हेतु समावेशी नीति नहीं बनाती है तो फिर से ब्रेन ग्रेन का वर्गीकरण हो जायेगा और फिर से सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े छात्र फिर से पिछड़े ही रह जायेंगे, क्या इन संस्थानों में सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के छात्रों को ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’ प्रदान करने से शोध की गुणवत्ता प्रभावित होगी?
अपने देशी उच्च शिक्षा संस्थानों में अक्सर छात्र तथा फैकल्टी ये कहते हुए पाए जाते है कि ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’  प्रदान करने से संस्थान की कीर्ति में कमी आती है, इसलिए इसे ख़त्म कर देना चाहिए, जब इस सिद्धांत के तहत आये छात्र विभिन्न विषयों में परीक्षा देते है  तो उस समय ये फैकल्टी शायद ही इस नीति का पालन करती है,  इतने उदारमना नहीं हो सकते, अब जब इस बिल में ऐसे कोई लाइन ही नहीं है जिससे समाज के सभी वर्गों के विद्यार्थियों को इसका लाभ मिले तो आगे बात करना बेमानी होगा. इस तरह से सरकार भी यह मानती है सामाजिक न्याय का प्रावधान करने से मेरिट तथा गुणवत्ता प्रभावित होती है. सरकार का ये भी कहना है कि इन संस्थानों में ‘ला आफ लैंड’ लागू होगा. इसका प्रभाव तो आरक्षण, कैपिटेशन फीस के रूप में तो देख ही रहे है, जब विदेशी संस्थानों से सम्बंधित कोई भी केस न्यायलय में जायेगा तो फिर विधायिका की न्यायपालिका में  छुट्टी. यानि इस बिल को पास करने वाली संस्था का फिर कोई  हस्तक्षेप नहीं होगा.
शिक्षा व्यवस्था में इस तरह का आमूलचूल परिवर्तन लाकर हम किस प्रकार का इण्डिया बनाने जा रहे है.

Thursday, July 14, 2011

मास्टरप्लान में पिसता किसान-मजदूर

मास्टरप्लान में पिसता किसान-मजदूर 
देश में ढांचागत विकास की आंधी चल रही है. हमारे वित्त मंत्री के अनुसार देश की आर्थिक विकास दर ९ % के आस-पास है और उसमें सेवा क्षेत्र तथा ढांचागत विकास का आधे से ज्यादा योगदान है. आज संसद से लेकर सड़क तक अत्याधुनिक मॉल, शौपिंग काम्प्लेक्स, विश्व स्तरीय टाउन विकसित किये जा रहे है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना प्लांट लगाने के लिए तो जल-जंगल-जमीन सब चाहिए.  लेकिन अब इसके लिए जमीन कम पड़ रही है. अब सरकार तथा बिल्डर्स किसानो से जमीन बेचने के लिए तथा मजदूरों से अपने आशियाने खाली करने को कह रही है, किसान जहाँ संगठित है वहां इसका विरोध कर रहे है नहीं तो चुपचाप औने पौने दाम पर जमीन बेचकर पलायन कर रहे है. ऐसा भी होता है कि झुग्गी-झोपडी-गरीब-आदिवासी की बस्ती अचानक बुलडोजर तले रौंद दी जाती है. लोग जब पूंछते है कि हमें तो नोटिस मिला ही नहीं तो तपाक से उन्हें एक कागज दिखा दिया जाता है कि आपका मकान 'मास्टरप्लान' में आता है. 
असल में मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक के सफ़र में भारत में 'निओ-मिडिल क्लास' का उदय हुआ है, इस उदारीकरण के दौर में भारत में विदेशी पूँजी निवेश का अविरत प्रवाह हुआ है. देश में अनेकानेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी आगमन होता है, इसने देश के बाजार के साथ-साथ संस्कृति और जीवन-मूल्य भी प्रभावित किया. इस मिडिल क्लास के पास बेतहाशा धनसंचय हुआ है, आज मिडिल क्लास का उटोपिया है-  मल्टीकल्चररल सोसाईटी और कास्मोपालिटन शहर. उसे लन्दन और लॉस वेगास की सुविधाएँ यहीं भारत में चाहिए. इन्हें साफ सुथरी सड़के, बिग बाज़ार टाईप के ऐसे मॉल जहाँ एक ही छत के नीचे हर प्रकार की चीजें उपलब्ध हो जाएँ तथा शोरगुल से दूर एक शानदार फ़्लैट चाहिए. दिल्ली के पास गुडगाँव और कोलकाता का साल्ट लेक सिटी इसके उपयुक्त उदाहरण है. सरकार भी अनुदार नहीं है इस मामले में.
आज सरकार की नीतियों और योजनाओ में जिस वर्ग के बारें में सबसे ज्यादा सोचा जाता है वह है मध्यम वर्ग. सोचेगी क्यों न , सरकार को इसी वर्ग से सर्वाधिक टैक्स भी मिलता है. सरकारें स्वयं इस वर्ग की हितपूर्ति के लिए आगे आती है. सरकारें भूमि अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी करती है किसानों-मजदूरों पर दबाव डालती है. सरकार साम-दाम-भेद के द्वारा अपनी स्कीम को सफल बनाती है और अंत में दंड का भी प्रयोग करती है. उत्तर प्रदेश से लेकर पश्चिम बंगाल तक सरकार की दंडात्मक कार्यवाही जारी है. 
किसानों को उचित मुवावजा दिए बगैर उनकी जमीन वही सरकार छीन रही है जिसको इसलिए बहुमत दिया गया कि ये हमारे लिए कुछ बेहतर काम करेगी. सरकार भी एक सेमी-पेरिफरी (semi-peripfery) की तरह काम करेगी क्योंकि कोर (core) यानी  नव-धनाढ्य वर्ग है उसे जो चाहिए सरकारें पेरिफरी (periphery) यानी जनता से छीनकर उनके हवाले कर देगी. अब सरकारों की संप्रभुता खतरें में पड़ गयी है क्योंकि रिमोट कंट्रोल कही और है, खनिज सम्पदा से भरपूर राज्यों में आम जनता की हालत सबसे बदतर है जबकि होना ये चाहिए था कि सबसे ज्यादा आम आदमी-आदिवासी लाभान्वित हो. लेकिन वहां की सरकारों का सरोकार जनता से नहीं जल-जमीन-जंगल लूटने वाली पोस्को तथा वेदांता जैसी कंपनियों से है. यानी रिमोट कंट्रोल फ़ोर्ब्स लिस्ट में शामिल देश के सज्जनों के पास चला गया है. ये सज्जन ही आज देश की योजनाओं, अर्थव्यवस्था में कोर (core) की भूमिका निभा रहे है. इनकी अपनी एक अलग जमात है और उनके चाहने वाले भी है. इन्ही सब के लिए मास्टरप्लान तैयार किया जाता है, 


आज जब सत्ताधारी नस्ल तथा प्रभु वर्ग का हित एक हो गया है और अपने मास्टरप्लान के तहत गरीब जनता का शोषण कर रहे है ऐसे में शोषित के पास क्या विकल्प बचते है???
देश में संवैधानिक व्यवस्था के तहत प्रतिनिधियों को चुनने का हक़ है उन्हें वापस बुलाने का नहीं. कहने को विश्व का सबसे बड़ा संविधान अपने भारत का है लेकिन विश्व कि सर्वाधिक गरीब जनता के लिए ये अबूझ पहेली के सामान है जहाँ संविधान को जनहित का स्वर्गद्वार होना चाहिए ऐसा न होकर ये वकीलों के लिए स्वर्ग बना हुआ है. देश के संविधान वेत्ताओ और बौद्धिक वर्ग को ये प्रयास करना चाहिए कि इसका छोटा, सहज  और सरल भाषा में ऐसा प्रारूप उपलब्ध हो जिसे हर व्यक्ति पढ़ सके और समझ सके. इसके आलावा  vote to recall की मांग उठाये और इसके लिए यदि आवश्यकता हो तो देशव्यापी आन्दोलन का सञ्चालन करें. लोगो को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना पड़ेगा. जमीन अधिग्रहण को एक देशव्यापी मुद्दा बनाना होगा.


हमें इस पर भी विचार करना होगा कि आज जिस उपजाऊ  जमीन पर मास्टरप्लान के तहत ओवरब्रिज, हाइवे, मॉल, टाउन विकसित हो रहे है उससे देश के नव धनाढ्य के ग्लोबल लालच की शायद ही पूर्ती हो पाए लेकिन इस एवज में जो जमीन हम खोएंगे वो कभी नहीं मिल सकेगी. २००३ के अनुसार देश में उर्वर जमीन  558,080 sq km है और हमारी आबादी सवा अरब के आस-पास. कई सालो से हम खाद्यान्न संकट से जूझ रहे है और बाहर से भी खाद्य आयात करना पड़ रहा है ऐसे में ढांचागत विकास की नीति के बारे में पुनर्विचार करना होगा. यदि दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे है तो ऐसा विकास किस काम का. 
 साथ ही सामाजिक न्याय के पैरोकारों को सड़क से लेकर संसद तक का मार्च करना पड़ेगा. आज देश को ये जरूरत आ पड़ी है कि वे सामंतवाद-बाजारवाद-सत्ताधारीवर्ग के कार्टेल के खिलाफ अपने  जनांदोलन  को एक नयी गति दे, उनके मास्टरप्लान  को ध्वस्त कर दे. आज युवा वर्ग को ये जिम्मेदारी अपने कन्धों पर लेनी पड़ेगी कि चुनाव पद्धति से लेकर सरकार बनाने की परिधि में शामिल होकर इस देश को एक नयी दिशा और दशा दे. आज संसद को भी सामाजिक न्याय तथा समतामूलक समाज के प्रति समर्पित युवाओ की जरूरत है न कि राजनैतिक परिवारों के युवराजों की.


 आज बाबाओ और महात्माओ द्वारा भ्रष्टाचार रोकने हेतु नए तरीके से प्रयास हो रहे है  लेकिन इसकी जड़ों पर प्रहार ये साधू महात्मा नहीं करेंगे क्योंकि इनके आभामंडल और कमंडल का प्रभाव नव धनाढ्य वर्ग में ही रहता है, ये प्रभु वर्ग के मास्टररोल के सिर्फ नट-बोल्ट है. किसान-मजदूर के खेत, रोटी कपडा और मकान से इनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है. उनका ये प्रयास हमारी संवैधानिक व्यवस्था के महत्त्व को नगण्य कर देगी. इस देश की व्यवस्था में बदलाव जनांदोलन के द्वारा ही होगा यही अंतिम विकल्प है, हथियारबंद आन्दोलन का हस्र हम देख ही चुके है.

योगी का हठयोग और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण

साथियों बाबा रामदेव के साथ जो भी हुआ उसे किसी प्रकार से सही नहीं ठहराया जा सकता. 
रात के 1.40 बजे दिल्ली पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अभी- अभी पता चला है की उन्हें हरिद्वार भेजा दिया गया है.रामलीला मैदान में धारा १४४ लगा दी गयी है. उधर बीजेपी ने कल राम मंदिर के मुद्दे पर उ.प्र. में चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. कडिया एक दुसरे से जुड़ रही है. देश में हिन्दुत्ववादी ताकतों का ध्रुवीकरण शुरू हो गया है. 
और कांग्रेस खुद चाहती है कि देश की जनता का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो. सामाजिक न्याय , आरक्षण, जाति जनगणना, भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का केवल एक तोड़ है- साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण. ये ऐसा अमीबा है जो सदियों तक जिन्दा रहेगा केवल और केवल भारत में.
इस समय सत्ता के पैमाने में पल पल उतार-चढाव हो रहा है , कांग्रेस किसी भी हद तक जाने को तैयार है...बीजेपी अब खुलकर बाबा रामदेव के समर्थन में आ गई है।बाबा रामदेव का मामला अब बीजेपी और कांग्रेस के बीच का मामला बन गया है. आज से बीजेपी देशभर में २४ घंटे का अनशन करेगी। दिल्ली में राजघाट पर यह अनशन होगा, जिसके लिए पुलिस प्रशासन से इजाजत मांगी गई है। लेकिन यदि इजाजत नहीं भी मिलती, तो भी वे अनशन करेंगे। उधर संघ नहीं चाहता कि बाबा रामदेव अपनी पार्टी बनाएं क्योंकि उसे डर है कि इससे नुकसान भाजपा और उसके सहयोगियों का ही होगा। संघ का आंकलन है कि बाबा गैर-कांग्रसी वोटबैंक पर ही सेंध लगाएंगे।
और बाबा....बाबा आपको RSS इस्तमाल कर रहा है ,साध्वी ऋतंभरा आपके मंच से बोल रही है और आपको इसका अंदाजा ही नहीं लगा कि मेरे साथ क्या हो रहा है. आप भूल गये की आपका नाम राम किशन यादव है ------ ना कि अन्ना हजारे...
एक और हुनमान की पूंछ में आग लगी, लेकिन हुआ उल्टा. 
लंका तो नहीं जली... उसकी पूंछ(demand) ख़तम हो गयी!

न्यायपालिका के संप्रभु होने से खतरे!!

भारतीय  संविधान  में न्यायपालिका को संविधान का रक्षक, व्यक्ति के अधिकारों के रक्षक के रूप में उल्लेखित किया गया है. न्यायपालिका और न्यायधीश को भारतीय जन-मानस में एक आदरणीय के रूप में देखा जाता है, न्यायपालिका को ये भी शक्ति प्राप्त है कि यदि कोई निर्णय संविधान की अवमानना कर रहा है तो उसकी न्यायिक पुनर्व्याख्या कर सकता है...
लेकिन पिछले तीन दशक से न्यापालिका के ढांचा-सांचा में आमूलचूल परिवर्तन हुए है. अब वह संसद को प्रदत्त कार्य और अधिकारों पर हस्तक्षेप करने लगी है, ऐसा लगता है कि अब संसद के ऊपर न्यायपालिका एक संप्रभु के रूप में मौजूद है.
ऐसा अकस्मात् नहीं हुआ है, बौद्धिक वर्ग आसानी से यह कह देता है कि लोकतांत्रिक मूल्य का हास हुआ है, राजनितिक दल और राजनैतिक व्यक्तित्व का पतन हुआ है इसलिए आज न्यायपालिका को आगे आना पड़ रहा है. दर-असल 1980 के दशक से भारतीय समाज के शोषित तबके का एक राजनितिक उभार हुआ, इससे यथा-स्थिति राजनैतिक-सामाजिक-प्रशासकीय व्यवस्था भी छिन्न भिन्न हुयी, लोगों में सम्मान और हक की चेतना जाग्रत हुई जिससे उन्होंने अपने अधिकारों की मांगो हेतु राज्य को तथा सत्ता-धीशों को चुनौती देना प्रारंभ किया. चूंकि लोकतंत्र में बहुमत तथा बहुजन की आवश्यकता और मांगो की पूर्ती करना व्यवस्था का कर्तव्य बनता है इसलिए सत्ता-धीश बहुमत के दबाव में आकर , विवश होकर उनकी मांगो को पूरा करना शुरू करते है. तभी अचानक न्यायपालिका बीच में आ जाती है और उसके हस्तक्षेप के आगे जम्हूरियत की सबसे बड़ी संस्था संसद भी नतमस्तक हो जाती है.
ऐसा क्यों---
भारतीय न्यायपालिका के बारे में ये कहा जाता है कि आज तक जो भी नामी गिरामी वकील-जज हुए है, उनके सम्बंधित परिवारों कि संख्या 100  से भी कम है. यानि एक सैकड़ा से कम परिवार के लोगो का न्यायपालिका में प्रभुत्व है और इनकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत अति कुलीन तंत्र वाली है. इसका मतलब न्यायपालिका ही ऐसी जगह है जहाँ आजादी के 64 साल बाद भी सामाजिक न्याय का सिद्धांत और  प्रजातंत्रीकरण लागू नहीं हो पाया है. आज टाटा-बिडला-अम्बानियों, राजनैतिक इलीट को जनता के गुस्से से राहत कौन देता है... वो संसद नहीं न्यायपालिका होती है.
सामाजिक न्याय और न्यायपालिका
जब न्यायपालिका में सामाजिक न्याय का सिद्धांत लागू ही नहीं हुआ तो फिर उसका उल्लंघन सबसे ज्यादा कौन करेगा, इसके लिए ज्यादा दिमाग लगाने कि जरूरत नहीं है. आज तक SC/ST के 22.5 % संवैधानिक आरक्षण नहीं लागू हुआ है तो क्या न्यायपालिका इसके लागू करवाने हेतु हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. गरीब,अ-हिन्दू आदिवासियों के ऊपर सत्ता-बाजार गठजोड़ का जो भयानक और अमानवीय हमले (हाल ही में पोस्को, उड़ीसा मामले को देख सकते है) हो रहे है तो उनकी जिन्दगी-जीविका कि रक्षा हेतु हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए.
ये भी तय है कि आरक्षण व्यवस्था में सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन हेतु अंतिम विकल्प नहीं है. लेकिन आरक्षण से ही समाज के शोषित तबके को भी व्यवस्था के पद-सोपानों में प्रतिनिधित्व मिलता है. व्यवस्था में निर्णय-निर्माण के समय यदि समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व न हो तो फिर कोई भी निर्णय न्यायिक रूप में लागू नहीं होगा. (उदा.- यदि 'मैला ढोने वाले' समुदाय के बेहतरी के लिए नीति-गत निर्णय लिए जा रहे हो और इस समुदाय का एक भी प्रतिनिधि शामिल न हो तो फिर प्रस्तावित नीतियां, फैसलें उस समुदाय के पक्ष में शायद ही हो)
भारतीय समाज के सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग के लिए संविधान में 93वा संशोधन कर उन्हें 27% 'विशेष अवसर' कि सुविधा दी जाती है ताकि 'scientific value' पैदा कर देश और समाज कि प्रगति में अपना योगदान दे सके लेकिन 2006 से लेकर आज तक इसको पूर्णरूपेण लागू नहीं किया है. और इसमें न्यायपालिका ही सबसे बड़ी बाधा के रूप में आती है. जस्टिस अशोक ठाकुर से लेकर जस्टिस दलवीर भंडारी तक (..आगे भी सिलसिला चलता रहेगा) ने हमेशा क्रीमी-लेयर तथा मेरिट के नाम पर इस संवैधानिक संशोधन को लागू नहीं होने दिया है. आखिर कब तक न्याय की सर्वोच्च अदालत सामाजिक न्याय के साथ लुका-छिपी का खेल खेलेगी..

 सामाजिक अन्याय और सामाजिक गैर बराबरी के खिलाफ  एक ऐसी लड़ाई है जिसमे शोषित-पीड़ित भाई-बहन खुद भाग नहीं लेते, यानि अपने अस्तित्व से सम्बंधित अधिकारों तक के लिए वो नहीं लड़ सकते. उन्हें इसका अंदाजा ही नहीं कि देश का प्रभु वर्ग किस महीनी से उनके अधिकारों की हत्या कर रहा है और निजी हांथो में बेच दे रहा है.