अभी हाल में ही अनिल काकोडकर के नेतृत्व वाली कमेटी ने भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थानों (IITs ) की फीस पांच गुना बढ़ने का प्रस्ताव किया है, उनका कहना है इससे वे सरकारी अनुदान में निर्भर नहीं रहेंगे और पूरी स्वायत्ता से काम करेंगे, जिससे देश को अच्छी प्रतिभायें मिलेंगी. यानि एक और ‘रेडिकल’ कदम. इसके पहले यू पी ए सरकार संसद में ’विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010 ‘ पेश ही कर चुकी है और उसमें अंतिम वैध मुहर लगना बाकी है. वैश्वीकरण के दौर में शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन को आप कैसे रोकेंगे भला.
UPA सरकार ‘विदेशी शैक्षणिक संस्थान विधेयक 2010′ का तहेदिल से स्वागत कर रही है, और इसे शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन बता रही है, परिवर्तन तो पक्का है, शिक्षा क्षेत्र को भी ओपन मार्केट की तरह खोल दिया जायेगा, आओ पैसा लगाओ और मुनाफा कमाओ. जहाँ उच्च शिक्षा में इनरोलमेंट का अनुपात केवल १२% हो, जहाँ कैपिटेशन फीस 1000000 रु. से कम न हो.
जहाँ गुणवत्ताकारी शोध के नाम में गरीब,सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़ें वर्ग (SEBCs ) के लिए कोई स्कोप न हो.
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का कहना है कि इस देश को 1000 नए विश्वविद्यालयों कि जरूरत है, जबकि इस देश में 612 जिले है यानि एक जिले के हिस्से में 3 /2 से अधिक विश्वविद्यालय मिलेंगे. कपिल सिब्बल के इस बयान के क्या निहितार्थ हो सकते है.
देश में शिक्षागत ढांचा अभी भी उतना ख़राब नहीं है, जितना इसे ख़राब करने कि कोशिश कि जा रही है. पिछले 10 सालों में ढांचागत विकास में भी बदलाव आया है, अब स्कूलों का निर्माण पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (P-P-P ) के तहत हो रहा है, जब निजी क्षेत्र के खिलाडी अपना पैसा लगायेंगे तो उससे भरपूर मुनाफा भी वसूलना चाहेंगे , मसलन आगे दुकान पीछे स्कूल का भी सिद्धांत चलेगा, शैक्षणिक परिवेश से इनका कोई सरोकार नहीं रहेगा, बावजूद इसके म्युनिसिपलिटी/नगर निगम का स्कूल हमेशा दोयम दर्जे का माना जाता है, जब नीति-निर्माता अपने नौनिहालों को फर्राटेदार अंग्रेजी वाले स्कूलों में ही भेजेंगे और उनको उन्हें ये सिखायेंगे कि ” my son! you are better than this ragpicker student, Don’t touch him/her, they are very dirty people, you know i am your papa.” तब आप पिछड़ों और दलित के बच्चो के बारे में क्या सोचेंगे. देश में पहले से ही जो शैक्षणिक ढांचा है आप उसमें सुधार नहीं करेंगे, जिम्मेदारियों से भागना कितना आसान है. ये है प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन.
अब आइये उच्च शिक्षा कि ओर:
ग्लोबल एजुकेशन डाइजेस्ट , 2009 (UNESCO ) के अनुसार भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों में समग्र नामांकन अनुपात 12 % है, जबकि वैश्विक अनुपात 23 % है. दूसरें देशों चीन में 23 %, अमेरिका में 82 % और क्यूबा में 109 % है. देश में इंजीनियरिंग कोर्स के लिए कैपिटेशन फीस दस लाख रु. तक, MBBS के लिए पचास लाख रु. तक, कला तथा विज्ञानं के कोर्से की फीस 5 लाख रु. तक है. इन उच्च शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति, जनजाति के लिए 22 .5 % प्रतिनित्धित्व की संवैधानिक व्यवस्था है और ‘सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े(SEBCs)’ वर्ग के लिए 27 % है, लेकिन अभी भी उच्च शिक्षा संस्थानों में कुछ खास वर्ग/जातियों के छात्रों कि संख्या सर्वाधिक है. SEBCs के लिए 27 % आरक्षण कि बात की गयी लेकिन 100 % के अन्दर नहीं बल्कि 127 % सीटें बढाकर. इसके बावजूद इस वर्ग के छात्रों की संख्या 12 % है, यानि 54 % सीटें बढाकर खास वर्ग ने अपने लिए 42 % सीटें बढ़ा ली. उसके बाद साजिश के तहत एक ही बार में न लागू कर इसे प्रति वर्ष 9 % की दर 3 सालों में लागू करने की बात की गयी.
सूचना के अधिकार के तहत हमें पता चलता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 2 .7 % SEBCs और 9 .7 % SC /ST टीचर है. तो सवाल ये उठता है कि शेष 90 टीचर किस वर्ग/जाति से आते है, ये है उच्च शिक्षा संस्थानों कि हकीकत. उच्च शिक्षा संस्थानों में 100 % प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सन 2000 से ही शुरू है तथा P-P-P (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप) की भी प्रमोट भी कर रही है, ऐसे में इस बिल के पास होने से और क्या आमूलचूल परिवर्तन होने वाला है-
*देश में फिर से गुणवत्ता तथा मेरिट का एक और मानक तय किया जायेगा ताकि हमारे छात्र वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अव्वल नंबर पायें.
*विदेश में अध्ययनरत छात्र को अब वही मेरिट तथा उच्च गुणवत्ता की शिक्षा खुद विदेशी शिक्षा संस्थान चलकर आपके पास आएंगे, इससे आप कम खर्च में ही वही डिग्री देंगे, आप भी खुश और सरकार भी.
इसके परिणाम क्या होंगे-
स्पष्ट है की जब-जब गुणवत्ता के मानक की बात की जाती है तो समाज के बहुसंख्यक वर्ग को इस परिधि से बाहर मान लिया जाता है, यदि वे येन-केन-प्रकारेण इन संस्थानों में पहुच भी जाते है तो मेरिटवादी छात्र और अध्यापक इतना प्रगतिशीलता का परिचय देते है कि शारीरिक और मानसिक शोषण कर उन्हें आत्महत्या करने में मजबूर कर देते है, इन्साईट फाऊंडेशन की रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार सालों में कुछ दलित छात्रों ने AIIMS जैसे शिक्षा संस्थानों में आत्महत्या की है, आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है कि दलित छात्र ही आत्महत्या करता है, अभी आप NII में निलेश गवली की आत्महत्या को भूलें नहीं होंगे, यदि ये बिल पास हो गया तो फिर बहुसंख्यक वर्ग को एक सिरे से ख़ारिज कर दिया जायेगा, सिर्फ यही नहीं ये बिल भारतीय संविधान के भाग-4 की मूल भावना को ख़ारिज करता है जिसमे सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ें वर्ग को प्रोत्साहित करने हेतु अनेक प्रावधानों का उल्लेख है. अब विदेशी शिक्षा संस्थान में वही प्रवेश पा सकेगा जो गुणवत्ता के मानकों पर खरा उतरता है, उसके कैपिटेशन फीस को भरने में सक्षम है. क्या ये संस्थान समग्र विकास की अवधारणा को फलीभूत करते है, जरा सोचिएं..
इन संस्थानों से निकली प्रतिभा और देशी उच्च संस्थानों से निकली प्रतिभाओ के बीच घमासान होगा जिसमे फिर से एक का बलिदान करके दूसरे को तरजीह दी जाएगी. यानि हम अपनी ही प्रतिभाओं के बीच वर्गीकरण को तैयार है और ये सरकार द्वारा समर्थित होगा. अभी पब्लिक स्कूल और सरकारी स्कूल के बीच ही भेदभाव था अब आप उच्च शिक्षा संस्थानों में भी यही होगा. विभिन्न पदों में नियुक्ति करते समय भी आपके साथ भेदभाव होने वाला है, इसके लिए आप तैयार रहिये.
यूपीए सरकार इसे ‘ब्रेन ड्रेन’ को रोंकने हेतु एक रेडिकल कदम बता रही है, और मानती है कि ब्रेन ड्रेन की जगह ‘ब्रेन गेन’ होगा. मेरा सवाल सभी बुद्धिजीवी-पत्रकार-लेखक-टिप्पणीकारों से ये है कि किस तरह से सरकार ब्रेन गेन करेंगी, सरकार का सिर्फ इतना प्रयास है कि छात्र जो पैसा बहरी देशो में खर्च करते थे अब वो यहीं करेंगे और सरकार को भी कुछ हिस्सा मिल जायेगा. लेकिन यदि सरकार समाज के सभी वर्गों के छात्रों हेतु समावेशी नीति नहीं बनाती है तो फिर से ब्रेन ग्रेन का वर्गीकरण हो जायेगा और फिर से सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े छात्र फिर से पिछड़े ही रह जायेंगे, क्या इन संस्थानों में सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के छात्रों को ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’ प्रदान करने से शोध की गुणवत्ता प्रभावित होगी?
अपने देशी उच्च शिक्षा संस्थानों में अक्सर छात्र तथा फैकल्टी ये कहते हुए पाए जाते है कि ‘विशेष अवसर के सिद्धांत’ प्रदान करने से संस्थान की कीर्ति में कमी आती है, इसलिए इसे ख़त्म कर देना चाहिए, जब इस सिद्धांत के तहत आये छात्र विभिन्न विषयों में परीक्षा देते है तो उस समय ये फैकल्टी शायद ही इस नीति का पालन करती है, इतने उदारमना नहीं हो सकते, अब जब इस बिल में ऐसे कोई लाइन ही नहीं है जिससे समाज के सभी वर्गों के विद्यार्थियों को इसका लाभ मिले तो आगे बात करना बेमानी होगा. इस तरह से सरकार भी यह मानती है सामाजिक न्याय का प्रावधान करने से मेरिट तथा गुणवत्ता प्रभावित होती है. सरकार का ये भी कहना है कि इन संस्थानों में ‘ला आफ लैंड’ लागू होगा. इसका प्रभाव तो आरक्षण, कैपिटेशन फीस के रूप में तो देख ही रहे है, जब विदेशी संस्थानों से सम्बंधित कोई भी केस न्यायलय में जायेगा तो फिर विधायिका की न्यायपालिका में छुट्टी. यानि इस बिल को पास करने वाली संस्था का फिर कोई हस्तक्षेप नहीं होगा.
शिक्षा व्यवस्था में इस तरह का आमूलचूल परिवर्तन लाकर हम किस प्रकार का इण्डिया बनाने जा रहे है.