आधुनिक भारत के निर्माता और ‘सामाजिक क्रांति के पिता’ महात्मा ज्योतिराव फूले का जन्म 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में गोविंदराव जी के घर पर हुआ था. ज्योतिबा फुले के पिता का नाम गोविन्द राव और माता का नाम चिमनबाई
था l फूले के बड़े भाई
का
नाम
राजाराम
था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. फूले जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. फूले का लालन–पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. फूले को सात वर्ष की आयु में स्कूल में पढ़ने भेजा गया उन्ही
दिनों
ऐसा
हुआ
कि
बम्बई
नैटिव
एजुकेशन
सोसाइटी’ के
संकेत
पर
सोसाइटी
के
विद्यालय
से
छोटी
जाति
के
छात्रों
को
निकाल
दिया
गया. अब ज्योतिबा
फावड़ा
और
खुरपी
लेकर
खेतों
में
लग
गए
तथा
फूलों
के
कारोबार को आगे
बढ़ाने
लगे. घरेलु कार्यो के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. फूले को आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने में उनके दो पड़ोसियों का बड़ा योगदान रहा था. गफ्फार बेग मुंशी एवं फ़ादर लिजीट फूले के पड़ोसी थे. उन्होंने बालक फूले की प्रतिभा एवं शिक्षा के प्रति रुचि देखकर उन्हें पुनः विद्यालय भेजने का प्रयास किया. फूले फिर से स्कूल जाने लगे. वह स्कूल में सदा प्रथम आते रहे. ज्योतिराव ने 1841 पुणे के स्काटिश मिशन हाई स्कूल में दाखिला लिया. स्कॉटलैंड के
मिशन
द्वारा
संचालित
स्कूल
में
फूले ने अधिकतर
शिक्षा
ग्रहण
की. फूले जार्ज वाशिंगटन और छत्रपति शिवाजी की
जीवन
कथाएं
पढ़ते
थे. वे गुलामी की जकड़न को समझने लगे थे. फूले अपने ब्राह्मण मित्रों
सदाशिव
बल्लाल, गोबंदे से मिलकर
अंधविश्वासों
तथा
मिथ्या
कुरीतियों
में
फंसे
लोगों
को
उनसे
मुक्त
होने
के
लिए
प्रेरित
करते
रहते
थे.
ज्योतिराव 13 वर्ष के थे तभी उनका विवाह सावित्रीबाई से हो गया था. सावित्रीबाई को ज्योतिराव फूले ने घर में ही पढाया और उन्हें आधुनिक शिक्षा दी. बाद में सावित्रीबाई भारत की प्रथम महिला शिक्षक बनी.
1848 में हुयी घटना ने ज्योतिराव को झकझोर दिया . एक ब्राह्मण साथी ने बरात में ज्योतिराव फूले को आमंत्रित किया था. बारात में जब उनकी जाति का पता लगा तो बाराती लोगों ने उनका अपमान किया. ज्योतिराव के मन को गहरी चोट लगी. ज्योतिराव ने प्रण किया वे अपनी जिंदगी पिछड़े और महिलाओं के उत्थान में लगा देंगे.
21 वर्ष
की
आयु
में
ज्योतिबा फूले
फुले
जी
ने
महाराष्ट्र
को
एक
नये
ढंग
का
नेतृत्व
दिया
l 1848 में ज्योतिराव ने पुणे में पहला स्कूल खोला. पिछड़े वर्ग की लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। पिछड़े समाज की लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया।
गृह त्याग के बाद पति-पत्नी को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. परन्तु वह अपने लक्ष्य से डिगे नहीं. अँधेरी काली रात थी, बिजली चमक रही थी. महात्मा फूले को घर लौटने में देर हो गई थी. वह सरपट घर की ओर बढ़े जा रहे थे. बिजली चमकी उन्होंने देखा आगे रास्ते में दो व्यक्ति हाथ में चमचमाती तलवारें लिए जा रहे है. वह अपनी चाल तेज कर उनके समीप पहुंचे. महात्मा फूले ने उनसे उनका परिचय व इतनी रात में चलने का कारण जानना चाहा. उन्होने बताया हम फूले को मारने जा रहे है. महात्मा फूले ने कहा –
उन्हें मार कर तुम्हे क्या मिलेगा? उन्होंने कहा –
पैसा मिलेगा, हमें पैसे की आवश्यकता है. महात्मा फूले ने क्षण भर सोचा फिर कहा- मुझे मारो,
मैं ही फूले हूँ, मुझे मारने से अगर तुम्हारा हित होता है, तो मुझे ख़ुशी होगी. इतना सुनते ही उनकी तलवारें हाथ से छूट गई. वह फूले के चरणों में गिर पड़े, और उनके शिष्य बन गये. भगवान बुद्ध ने अपनी करुना और मैत्री से जिस तरह अंगुलिमाल का ह्रदय परिवर्तन किया था ठीक वैसे ही फूले ने इन दोनों व्यक्तियों का.
सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। दो वर्षों तक
शिक्षा
के
क्षेत्र
में
कार्य
करने
के
बाद
फूले ने 3 जुलाई 1953 को
एक
दूसरा
विद्यालय
पूना
के
अन्नासाहेब
चिपलूणकर
भवन
में
खोला. उनके विद्यालय
को
जब
कोई
अध्यापक
नहीं
मिल रहे थे तो
उन्होंने
इस
कार्य
के
लिए
अपनी
पत्नी
सावित्रीबाई
फुले
को
शिक्षित
किया,
उनकी
पत्नी
ने
भी
इस
कार्य
को
सहज
स्वीकार
किया. उनकी पत्नी
विदयालय
में
पढ़ाने
जाने
लगी. सवर्णों के
क्रोध
की
कोई
सीमा
न
रही. सावित्रीबाई फुले
जब
स्कूल
जाती
थी
तो
लोग
उन
पर
ढेले
चलाना
शुरू
कर
देते
थे,
उन
पर
कीचड़,
कंकड़-पत्थर
फेकने
लगे. साड़ी गन्दी
हो
जाया
करती
थे
इस
लिए
वो
एक
साड़ी
हमेशा
साथ
ले
कर
चलती
थी. विद्यालयों के
संचालन
के
लिए
एक
प्रबंध
समिति
का
गठन
किया. उस समय
की
सरकार
को
प्रबंध
समिति
की
सूची
प्रस्तुत
की
गयी तत्कालीन ब्रिटिश शासन
ने
फुले
जी
के
शिक्षा
सम्बन्धी
कार्यों
की
प्रशंसा
की. 19 नवंबर, 1852 को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी के द्वारा एक भव्य समारोह में 200 रुपए का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर फूले का सम्मान किया और उन्हें
एक
महान
समाज
सेवी
की
रूप
में
मान्यता
दी
। सन् 1852 में ही फूले ने पिछड़ों के लिये एक वाचनालय की स्थापना भी की । अब
कुछ
समाज
सेवी
ब्राह्मणों
ने
भी फूले की
नीतियों
से
प्रभावित
होकर
उनका
सहयोग
करना
प्रारम्भ
कर
दिया
जिससे
रूढ़िवादी
और
समाज
सेवी
ब्राह्मणों
में
संघर्ष
की
स्थिति
उत्पन्न
हो
गयी
थी. 19 फरवरी 1852 के 'टेलीग्राफ एंड कोरियर' पत्र में एक पर्यवेक्षक ने लिखा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि "ब्राह्मण छोटी जातियों के भयानक शत्रु थे किन्तु कुछ ब्राह्मणों ने यह भी अनुभव करना प्रारम्भ कर दिया है कि उनके पूर्वजों ने इन जातियों के लोगों को अनगिनत अघात पहुचाएं है."
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। उनकी किताब ‘किसान का कोड़ा’ उस समय के किसानो, जिन्हें फूले ने कुंडबी (कुर्मी) लिखा, उनकी बदहाली का चित्रण किया है. फूले ने छत्रपति शिवाजी को किसानो का प्रेरणास्रोत बताया. फूले महाराष्ट्र के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने शिवाजी के पराक्रम, साहस और कुशलता पर गीत लिखे. उन्होंने शिवाजी के महान आदर्शों का वर्णन किया। शिवाजी के राज्यकाल में किसान ही उनकी सेना में सिपाही होते थे. शिवाजी स्वयं एक कुर्मी-किसान परिवार से थे इसलिये वे किसानों को अपने परिवार का अंग मानते थे. फूले जी छत्रपति शिवाजी को ‘लोकर’जा' बोलते थे. फूले ने अपनी रचनाओं में पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में विस्तार से लिखा है। गरीब किसानों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। फूले ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने का उन्होंने समर्थन किया। । फूले को विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन का जनक माना जाता है. विधवाओं के लिए अपने आश्रम खोले और बाल विवाह प्रथा को बंद करवाने के लिए आन्दोलन किया. फूले दम्पति ने विधवाओं के पुनर्वास और अनाथ बच्चों के लिए कई अनाथालय खोले. यहाँ तक कि 1873 में एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को उन्होंने गोद लिया और उसका नाम यशवंत फूले रखा. फूले ने विधवा नारी के उद्धार का कार्यक्रम बनाया। फूले की देखरेख में 8 मार्च 1860 में एक विधवा युवती का विवाह कराया गया। फूले के इस प्रयास से एक नयी क्रांति का उदय हुआ. उनके समय में महिलाओं और पिछड़ी जातियों के लिए पढाई करना दिन में सपने देखने जैसा था.
महात्मा फूले ने जान की परवाह किये बिना जन-शिक्षा का मिशन शुरू किया. आज पूरे विश्व में एक सामान शिक्षा की मुहिम चल रही है. फूले साहब का प्रथम उद्देश्य था- एक समान प्राथमिक शिक्षा. उन्होंने प्राथमिक शिक्षा के लिए लिए शिक्षक की योग्यता और पाठ्यक्रम पर ध्यान दिया. उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले को भारत की महिला शिक्षक होने का गौरव प्राप्त है. उनके लिए शिक्षा सामाजिक बदलाव का एक माध्यम थी. उनका मानना था सामाजिक बदलाव की निरंतरता तभी बनी रह सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति को पूरी शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्राप्त हो.
विद्या बिना मति गयी
मति बिना गति गयी
गति बिना नीति गयी
नीति बिना संपत्ति गयी,
इतना घोर अनर्थ मात्र,
फूले
24 सितम्बर
1873 में अपने सभी हितैषियों, प्रशंसकों तथा अनुयायियों की एक सभा बुलाई। उनसे विचार-विमर्श के बाद तथा फूले के विचारों से सहमत होते हुए संस्था का गठन कर दिया गया। महात्मा फुले जी ने संस्था का नाम दिया “सत्य शोधक समाज”. यहाँ जो अहम बात है जो हमें याद रखना होगा कि उनके तीन ब्राह्मण मित्रों ने विनायक बापूजी भंडारकर, विनायक बापूजी डेंगल तथा सीताराम सखाराम दातार ऐसे थे जिन्होंने सत्यशोधक समाज को हर प्रकार का सहयोग देने का वचन दिया। सत्य शोधक समाज का प्रमुख उद्देश था-पिछड़े, दलित और महिलाओं को शोषणकरी व्यवस्था से छुड़ाना और उन्हें शिक्षित कर आत्मनिर्भर बनाना. सत्य शोधक समाज उस समय के अन्य संगठनो से अपने सिद्धांतो व कार्यक्रमो के कारण भिन्न था. सत्य शोधक समाज पूरे महाराष्ट्र में शीघ्र ही फ़ैल गया. सत्य शोधक समाज के लोगो ने जगह – जगह दलित-पिछड़ों और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोले. छूआ-छूत का विरोध किया. किसानों के हितों की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया.
अपने जीवन काल में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं- तृतीय रत्न,
छत्रपति शिवाजी, राजा भोसला का पावड़ा, ब्राह्मणों का चातुर्य, किसान का कोड़ा, अछूतों की कैफियत. 1873 में उनकी महान रचना ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुयी. धर्म, समाज और परम्पराओं के सत्य को सामने लाने हेतु उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखी. फूले साहब ताउम्र शोषितों को लिए अन्यायकारी व्यवस्था के खिलाफ लड़ते रहे. 19वीं सदी के
अंतिम दशक में पूना प्लेग महामारी से ग्रस्त हुआ था. फूले दम्पति ने प्लेग रोगियों की अथक सेवा की और स्वयं ज्योतिराव फूले की म्रत्यु 28 नवम्बर 1890 को प्लेग महामारी से हो गयी.
फूले: दार्शनिक, समाज सुधारक, लीडर, स्त्री- पिछड़े वर्ग की मुक्ति के प्रवर्तक
फूले अमेरिकन लोकतंत्र और फ्रांसीसी क्रांति के मूल सूत्र- समानता, स्वतंत्रता और बंधुता से बहुत प्रभावित थे. वे टामस पेन की कृति ‘राइट्स ऑफ़ मैन’ से बहुत प्रभावित थे. स्त्रियों और पिछड़े वर्ग का शोषण और मानव अधिकार की समस्याओ पर फूले ने गंभीर चिंतन किया और उसका मानवीय स्तर पर समाधान करने के लिये ताउम्र प्रतिबद्ध रहे. फूले महात्मा बुद्ध के सामाजिक न्याय और बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के दर्शन को आगे बढाया. फूले अपने मुक्तगामी दर्शन के आधार पर 19वीं सदी के महान चिन्तक जे एस मिल और फ्रेडरिक एंगल्स की कतार पर खड़े होते है.
फूले आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे. फूले की कथनी-करनी में कोई फर्क नहीं था. फूले अपने समय की राष्ट्र्व्यापी समस्याओं से भिड़े. वे धर्म, जाति तथा जेंडर के सवाल पर, कर्मकाण्ड, किसानों की समस्या और ब्रिटिश शासन आदि पर चिंतन किया. वे एक दार्शनिक, नेता और महान संगठनकर्ता थे. फूले ने अपना सार्वजनिक जीवन 1848 में शुरु किया और म्रत्युपरंत पिछड़े समाज के कल्याण में लगे रहे. फूले 1858 में अपने शैक्षणिक संस्थानों के अलग होकर सामाजिक सुधारों की तरफ अग्रसर हुये. 1876 में पुणे नगर निगम के पार्षद बने. महात्मा ज्योतिबा व उनके संगठन के संघर्ष के कारण सरकार ने ‘एग्रीकल्चर एक्ट’ पास किया. उन्होंने अपना निजी जलाशय को सार्वजानिक किया l फूले मानते थे क्रांतिकारी विचार क्रांतिकारी कार्यों से ही आंके जाते है. फूले ने देश के अद्विज लोगों को शूद्र-अति शूद्र कहा जो आज के समय ओबीसी और दलित वर्ग है और इन्ही वर्गों को क्रांति का पहरुआ कहा और इसी समुदाय को गुलामी से मुक्त करने के लिये काम करना शुरू किया. उनके योगदान के चलते बाम्बे में 1888 में ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी. फूले के जीवनीकार धनञ्जय कीर ने उन्हें सामाजिक क्रान्ति का पिता कहा.
फूल्रे आधुनिक दर्शनशास्त्र के पिता समझे जाने वाले देकार्ते के समकक्ष माने जाते थे. देकार्ते ने सभी मान्यताओं को तर्क की कसौटी पर कसा वैसे ही फूले ने भारतीय समाज का अध्ययन तार्किक आधार पर ही किया. फूले ने भारतीय दर्शन का आधुनिकीकरण किया. फूले ने पहली बार धर्म, योग, वेदांत और बुद्ध दर्शन के इतर शोषण और असमानता का चिंतन किया. योग में व्यक्ति के मानस के सुधार की बात की गयी है जबकि फूले का चिंतन सार्वजानिक कल्याण के लिये था. वेदान्त में माया और यथार्थ का चिंतन किया गया. फूले ने इस दर्शन को ख़ारिज कर दिया और अविद्या को ही सारे दुखो का करना बताया और सच्चा ज्ञान को ही समता और बंधुता का आधार बताया. बुद्ध दर्शन ने दुःख को अंतिम सत्य मान है और स्वयं के प्रति अज्ञानता को दुःख के कारण माना है. व्यक्ति को जब सच्चा ज्ञान मिल जाता है तो प्रसन्न चित्त हो जाता है और निर्वाण की अवस्था को प्राप्त कर लेता है वहीं फूले दुःख का कारण ऐतिहासिक या मानसिक नहीं मानते है वे गैर-बराबरी पर आधारित भारतीय सामाजिक ढांचे को मानते है. जिस दिन ये सामजिक ढांचा ख़त्म, हो जाएगा व्यक्ति स्वतंत्र तथा आधुनिक हो जायेगा.
फूले ने अपनी रचनाओं में धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लिखा और खुली सभाओं में संवाद किया. फूले ने कई गीतों और पावडों की रचना की जिनका आधार सामाजिक-धार्मिक समस्याए थी. फूले ने मूर्ति-पूजा और परम ब्रह्म की अवधारणा को ख़ारिज किया और पाखंडी धर्म, मूर्ति पूजा और जाति-व्यवस्था को सम्रद्ध भारत के पतन का कारण माना. फूले ने अपनी पुस्तक ‘सार्वजानिक धर्म सभा’ में इन समस्याओं का विकल्प दिया. प्रसिद्द समाजशास्त्री गेल ओम्वेट ने अपनी रचना ‘औनिवेशिक समाज में सास्कृतिक विद्रोह’ में फूले को भारतीय पुनर्जागरण का सूत्रधार माना है.
19वीं सदी में जाति-व्यवस्था ने मानव अधिकारों को कुंद कर दिया था. जाति-व्यवस्था के चलते एक मनुष्य दुसरे के साथ खाने-पीने, चलने-बोलने पर समानता का व्यवहार नहीं कर सकता था. समाज के निचले वर्ग को उच्च शिक्षा प्राप्त करना व्यवस्था खिलाफत माना जाता था. फूले ने इस व्यवस्था के खिलाफ जेहाद किया और और बहिष्कृत समाज के बच्चो के लिये प्रथम बार विद्यालय खोले. आज बड़ी संख्या में पिछड़े समाज के लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे है ये फूले साहब की ही देन है.
स्त्रीवादी फूले
फूले का स्त्रीवादी चिंतन उन्हें महान चिंतकों मिल और फ्रेडरिक एंगल्स की बराबरी पर खड़ा करता है. फूले अपने समय के पुरुष समाज सुधारको से ज्यादा प्रगतिशील साबित होते है. फूले ने स्त्री के शोषण का आधार धार्मिक के साथ सामाजिक तथा आर्थिक माना और धर्म के इतर स्त्री-विमर्श को स्वतंत्र चिंतन के रूप में स्वीकारा. जहाँ मिल ने व्यक्तिवाद को आधार बनाकर स्त्री-पुरुष असमानता पर चिंतन किया और और पुरुष की भाँति स्त्री को भी एक इकाई माना और एक सभ्य समाज के लिये स्त्री-पुरुष की बराबरी को आवश्यक बताया. फ्रेडरिक एंगल्स ने अपनी कृति ‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’ में स्त्री के शोषण की ऐतिहासिक दास्ताँ का वर्णन किया है. एंगल्स ने धर्म की जगह आर्थिक कारणों को स्त्री के शोषण के लिये जिम्मेदार माना और उसे वर्गीय शोषण के रूप चिन्हित किया. फूले ने भी एंगल्स की भाति स्त्री के शोषण का आधार आर्थिक माना यद्यपि फूले ने वर्गीय आधार की जगह जाति को आधार माना जो ब्राह्मणवादी सामजिक व्यवस्था की रीढ़ है. फूले ने मिल की भांति स्त्री को पुरुष के जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और मानव अधिकारों लिये योग्य पाया. इसके लिये फूले ने पहली बार केवल छात्राओं के लिये विद्यालय खोले. विधवाओं के पुनर्वास के लिये आश्रम खोले. विधवाये अपनी गुप्त पहचान रखकर वहां अपने बच्चो को दे जन्म दे सकती थी. फूले की संस्था विधवाओं और उनके बच्चो की देखभाल करती थी. फूले एक ब्राह्मण महिला को सबसे ज्यादा शोषित मानते थे. फूले दम्पति ने खुद एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को गोद लिया था. फूले वास्तव में भारतीय स्त्रियों के मुक्तिदाता थे. फूले के स्त्री-चिंतन का ब्गबा साहेब आंबेडकर, राना डे और महात्मा गांधी पर पड़ा.
आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान
वैसे भारतीय संविधान को आधुनिक विधि-संहिता मानी जाती है जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, सामाजिक न्याय और समाजवाद की प्रस्तावना करती है लेकिन आज भी एक ‘गुप्त वर्ण-भेद’ व्याप्त है. आज भी देश की महिलाये, पिछड़े वर्ग के लोग दोयम दर्जे की जिंदगी जीने को मजबूर है. आज भी उन्हें सवर्णों के साथ मेल-जोल करने से मनाही है. सामाजिक-धार्मिक संस्थानों में आज भी छुआ-छूत व्याप्त है. सवर्णों के इलाके में लगे नल से दलित पानी नहीं भर सकते, विद्यालयों में दलित समाज के बच्चे को सबसे पीछे बैठना पड़ता है. महिलाओं की बराबरी के लिये हो रहे संघर्ष के प्रति पुरुष प्रधान समाज का प्रतिक्रियात्मक रवैया है. जन्म से लेकर म्रत्यु तक एक स्त्री आज भी पिता, पति और पुत्र के वर्चस्व में जीती है.
लेकिन शोषण और अत्याचार के घने बादलों के बीच जाति-मुक्ति, स्त्री मुक्ति और मानव अधिकारों के लिये लगातार आन्दोलन चल रहे है. आजादी के बाद भारत के के. आर. नारायणन पहला दलित राष्ट्रपति बनता है, प्रतिभा देवी पाटिल पहली महिला राष्ट्रपति बनती है. इंदिरा गांधी पहली महिला प्रधानमंत्री बनती है. एच. डी. देवेगौडा पहले पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री बनते है. कल्पना चावला के रूप में पहली भारतीय महिला अंतरिक्ष पहुँचती है. देश के शासन-प्रशासन में पिछड़े वर्ग के लोगो की और महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. ये सब ज्योतितव फूले के समता-तर्क और मानव अधिकारों पर आधारित दार्शनिक चिंतन का परिणाम है. ज्योतिराव फूले भारत में एकसमान शिक्षा प्रणाली और भारत में किसानो के आदोलनो के सूत्रधार बने. वे भारत में सामाजिक न्याय के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते थे और दलित-पिछडो और महिलाओं के हित और अधिकारों के लिए लड़ा. डा. आंबेडकर ने फूले साहेब को अपना वास्तविक गुरु माना था. बाबा साहेब ने फूले के बारे में कहा था- “महात्मा फुले मॉडर्न इंडिया के सबसे महान शूद्र थे जिन्होंने पिछड़ी जाति के हिन्दुओं को अगड़ी जातिके हिन्दुओं का गुलाम होने के प्रति जागरूक कराया, जिन्होंने यह शिक्षा दी कि भारत के लिए विदेशी हुकूमत से स्वतंत्रता की तुलना में सामाजिक लोकतंत्र कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है.”
(ये लेख
दलित दस्तक पत्रिका में कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित हो चूका है.)
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ReplyDeleteShaandaar
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