"जिस लड़ाई की बुनियाद आज मै डाल रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी. चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं. इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे. जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी." -जगदेव बाबू( 2 Feb.1922- 5 Sept. 1974), 25 अगस्त, 1967 को दिए गए ओजस्वी भाषण का अंश.
निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा होने के कारण जगदेव जी की प्रवृत्ति शुरू से ही संघर्षशील तथा जुझारू रही तथा बचपन से ही 'विद्रोही स्वाभाव' के थे. जगदेव प्रसाद जब किशोरावस्था में अच्छे कपडे पहनकर स्कूल जाते तो उच्चवर्ण के छात्र उनका उपहास उड़ाते थे. एक दिन गुस्से में आकर उन्होंने उनकी पिटाई कर दी और उनकी आँखों में धुल झोंक दी, इसकी सजा हेतु उनके पिता को जुर्माना भरना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पडी. जगदेव जी के साथ स्कूल में बदसूलकी भी हुयी. एक दिन बिना किसी गलती के एक शिक्षक ने जगदेव जी को चांटा जड़ दिया, कुछ दिनों बाद वही शिक्षक कक्षा में पढ़ाते-पढाते खर्राटे भरने लगे, जगदेव जी ने उसके गाल पर एक जोरदार चांटा मारा. शिक्षक ने प्रधानाचार्य से शिकायत की इस पर जगदेव जी ने निडर भाव से कहा, 'गलती के लिए सबको बराबर सजा मिलना चाहिए चाहे वो छात्र हो या शिक्षक'.
जब वे शिक्षा हेतु घर से बाहर रह रहे थे, उनके पिता अस्वस्थ रहने लगे. जगदेव जी की माँ धार्मिक स्वाभाव की थी, अपने पति की सेहत के लिए मंदिर में जाकर देवी-देवताओं की खूब पूजा, अर्चना किया तथा मन्नते मांगी, इन सबके बावजूद उनके पिता का देहावसान हो गया. यहीं से जगदेव जी के मन में हिन्दू धर्म के प्रति विद्रोही भावना पैदा हो गयी, उन्होंने घर की सारी देवी-देवताओं की मूर्तियों, तस्वीरों को उठाकर पिता की अर्थी पर डाल दिया. इस ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म से जो विक्षोभ उत्पन्न हुआ वो अंत समय तक रहा, उन्होंने ब्राह्मणवाद का प्रतिकार मानववाद के सिद्धांत के जरिये किया.
जगदेव जी ने तमाम घरेलू झंझावतों के बीच उच्च शिक्षा ग्रहण किया. पटना विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक उत्तीर्ण किया. वही उनका परिचय चंद्रदेव प्रसाद वर्मा से हुआ, चंद्रदेव ने जगदेव बाबू को विभिन्न विचारको को पढने, जानने-सुनने के लिए प्रेरित किया, अब जगदेव जी ने सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया और राजनीति की तरफ प्रेरित हुए. इसी बीच वे 'शोसलिस्ट पार्टी' से जुड़ गए और पार्टी के मुखपत्र 'जनता' का संपादन भी किया. एक संजीदा पत्रकार की हैसियत से उन्होंने दलित-पिछड़ों-शोषितों की समस्याओं के बारे में खूब लिखा तथा उनके समाधान के बारे में अपनी कलम चलायी. 1955 में हैदराबाद जाकर इंगलिश वीकली 'Citizen' तथा हिन्दी साप्ताहिक 'उदय' का संपादन आरभ किया. उनके क्रन्तिकारी तथा ओजस्वी विचारों से पत्र-पत्रिकाओं का सर्कुलेशन लाखों की संख्या में पहुँच गया. उन्हें धमकियों का भी सामना करना पड़ा, प्रकाशक से भी मन-मुटाव हुआ लेकिन जगदेव बाबू ने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया, उन्होंने हंसकर संपादक पद से त्यागपत्र देकर पटना वापस लौट आये और समाजवादियों के साथ आन्दोलन शुरू किया.
बिहार में उस समय समाजवादी आन्दोलन की बयार थी, लेकिन जे.पी. तथा लोहिया के बीच सद्धान्तिक मतभेद था. जब जे. पी. ने राम मनोहर लोहिया का साथ छोड़ दिया तब बिहार में जगदेव बाबू ने लोहिया का साथ दिया, उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत किया और समाजवादी विचारधारा का देशीकरण करके इसको घर-घर पहुंचा दिया. जे.पी. मुख्यधारा की राजनीति से हटकर विनोबा भावे द्वारा संचालित भूदान आन्दोलन में शामिल हो गए. जे. पी. नाखून कटाकर क्रांतिकारी बने, वे हमेशा अगड़ी जातियों के समाजवादियों के हित-साधक रहे. भूदान आन्दोलन में जमींदारों का ह्रदय परिवर्तन कराकर जो जमीन प्राप्त की गयी वह पूर्णतया उसर और बंजर थी, उसे गरीब-गुरुबों में बाँट दिया गया था, लोगो ने खून-पसीना एक करके उसे खेती लायक बनाया. लोगों में खुशी का संचार हुआ लेकिन भू-सामंतो ने जमीन 'हड़प नीति' शुरू की और दलित-पिछड़ों की खूब मार-काट की गयी, अर्थात भूदान आन्दोलन से गरीबों का कोई भला नहीं हुआ उनका Labour Exploitation' जमकर हुआ और समाज में समरसता की जगह अलगाववाद का दौर शुरू हुआ. कर्पूरी ठाकुर ने विनोबा भावे की खुलकर आलोचना की और 'हवाई महात्मा' कहा. (देखे- कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद: नरेंद्र पाठक)
जगदेव बाबू ने 1967 के विधानसभा चुनाव में संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, 1966 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का एकीकरण हुआ था) के उम्मीदवार के रूप में कुर्था में जोरदार जीत दर्ज की. उनके अथक प्रयासों से स्वतंत्र बिहार के इतिहास में पहली बार संविद सरकार (Coalition Government) बनी तथा महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री बनाया गया. जगदेव बाबू तथा कर्पूरी ठाकुर की सूझ-बूझ से पहली गैर-कांग्रेस सरकार का गठन हुआ, लेकिन पार्टी की नीतियों तथा विचारधारा के मसले लोहिया से अनबन हुयी और 'कमाए धोती वाला और खाए टोपी वाला' की स्थिति देखकर संसोपा छोड़कर 25 अगस्त 1967 को 'शोषित दल' नाम से नयी पार्टी बनाई, उस समय अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था-
"जिस लड़ाई की बुनियाद आज मै डाल रहा हूँ, वह लम्बी और कठिन होगी. चूंकि मै एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण कर रहा हूँ इसलिए इसमें आने-जाने वालों की कमी नहीं रहेगी परन्तु इसकी धारा रुकेगी नहीं. इसमें पहली पीढ़ी के लोग मारे जायेगे, दूसरी पीढ़ी के लोग जेल जायेगे तथा तीसरी पीढ़ी के लोग राज करेंगे. जीत अंततोगत्वा हमारी ही होगी." आज जब देश के अधिकांश राज्यों की तरफ नजर डालते है तो उन राज्यों की सरकारों के मुखिया 'शोषित समाज' से ही आते है.जगदेव बाबू एक महान राजनीतिक दूरदर्शी थे, वे हमेशा शोषित समाज की भलाई के बारे में सोचा और इसके लिए उन्होंने पार्टी तथा विचारधारा किसी को महत्त्व नहीं दिया. मार्च 1970 में जब जगदेव बाबू के दल के समर्थन से दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने, उन्होंने 2 अप्रैल 1970 को बिहार विधानसभा में ऐतिहासिक भाषण दिया-
"मैंने कम्युनिस्ट पार्टी, संसोपा, प्रसोपा जो कम्युनिस्ट तथा समाजवाद की पार्टी है, के नेताओं के भाषण भी सुने है, जो भाषण इन इन दलों के नेताओं ने दिए है, उनसे साफ हो जाता है कि अब ये पार्टियाँ किसी काम की नहीं रह गयी है इनसे कोई ऐतिहासिक परिवर्तन तथा सामाजिक क्रांति की उम्मीद करना बेवकूफी होगी. इन पार्टियों में साहस नहीं है कि सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी जो असली कारण है उनको साफ शब्दों में मजबूती से कहे. कांग्रेस, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी ये सब द्विजवादी पूंजीवादी व्यवस्था और संस्कृति के पोषक है. ........ मेरे ख्याल से यह सरकार और सभी राजनीतिक पार्टियाँ द्विज नियंत्रित होने के कारण राज्यपाल की तरह दिशाहीन हो चुकी है. मुझको कम्युनिज्म और समाजवाद की पार्टियों से भारी निराशा हुयी है. इनका नेतृत्व दिनकट्टू नेतृत्व हो गया है." उन्होंने आगे कहा- 'सामाजिक न्याय, स्वच्छ तथा निष्पक्ष प्रशासन के लिए सरकारी, अर्धसरकारी और गैरसरकारी नौकरियों में कम से कम 90 सैकड़ा जगह शोषितों के लिए आरक्षित कर दिया जाये.
बिहार में राजनीति का प्रजातंत्रीकरण (Democratisation) को स्थाई रूप देने के लिए उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति की आवश्यकता महसूस किया. वे मानववादी रामस्वरूप वर्मा द्वारा स्थापित 'अर्जक संघ' (स्थापना 1 जून, 1968) में शामिल हुए. जगदेव बाबू ने कहा था कि अर्जक संघ के सिद्धांतो के द्वारा ही ब्राह्मणवाद को ख़त्म किया जा सकता है और सांस्कृतिक परिवर्तन कर मानववाद स्थापित किया जा सकता है. उन्होंने आचार, विचार, व्यवहार और संस्कार को अर्जक विधि से मनाने पर बल दिया. उस समय ये नारा गली-गली गूंजता था-
मानववाद की क्या पहचान- ब्रह्मण भंगी एक सामान,
पुनर्जन्म और भाग्यवाद- इनसे जन्मा ब्राह्मणवाद.
7 अगस्त 1972 को शोषित दल तथा रामस्वरूप वर्मा जी की पार्टी 'समाज दल' का एकीकरण हुआ और 'शोषित समाज दल' नमक नयी पार्टी का गठन किया गया. एक दार्शनिक तथा एक क्रांतिकारी के संगम से पार्टी में नयी उर्जा का संचार हुआ. जगदेव बाबू पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में जगह-जगह तूफानी दौरा आरम्भ किया. वे नए-नए तथा जनवादी नारे गढ़ने में निपुण थे. सभाओं में जगदेव बाबू के भाषण बहुत ही प्रभावशाली होते थे, जहानाबाद की सभा में उन्होंने कहा था-
दस का शासन नब्बे पर,
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा.
सौ में नब्बे शोषित है,
नब्बे भाग हमारा है.धन-धरती और राजपाट में,
नब्बे भाग हमारा है.
जगदेव बाबू अपने भाषणों से शोषित समाज में नवचेतना का संचार किया, जिससे सभी लोग इनके दल के झंडे तले एकत्रित होने लगे. जगदेव बाबू ने महान राजनीतिक विचारक टी.एच. ग्रीन के इस कथन को चरितार्थ कर दिखाया कि चेतना से स्वतंत्रता का उदय होता है, स्वतंत्रता मिलने पर अधिकार की मांग उठती है और राज्य को मजबूर किया जाता है कि वो उचित अधिकारों को प्रदान करे.
बिहार की जनता अब इन्हें 'बिहार लेनिन' के नाम से बुलाने लगी. इसी समय बिहार में कांग्रेस की तानाशाही सरकार के खिलाफ जे.पी. के नेतृत्व में विशाल छात्र आन्दोलन शुरू हुआ और राजनीति की एक नयी दिशा-दशा का सूत्रपात हुआ, लेकिन आन्दोलन का नेतृत्व प्रभुवर्ग के अंग्रेजीदा लोगों के हाथ में था, जगदेव बाबू ने छात्र आन्दोलन के इस स्वरुप को स्वीकृति नहीं दी. इससे दो कदम आगे बढ़कर वे इसे जन-आन्दोलन का रूप देने के लिए मई 1974 को 6 सूत्री मांगो को लेकर पूरे बिहार में जन सभाएं की तथा सरकार पर भी दबाव डाला गया लेकिन भ्रष्ट प्रशासन तथा ब्राह्मणवादी सरकार पर इसका कोई असर नहीं पड़ा. जिससे 5 सितम्बर 1974 से राज्य-व्यापी सत्याग्रह शुरू करने की योजना बनी. 5 सितम्बर 1974 को जगदेव बाबू हजारों की संख्या में शोषित समाज का नेतृत्व करते हुए अपने दल का काला झंडा लेकर आगे बढ़ने लगे. कुर्था में तैनात डी.एस.पी. ने सत्याग्रहियों को रोका तो जगदेव बाबू ने इसका प्रतिवाद किया और विरोधियों के पूर्वनियोजित जाल में फंस गए. सत्याग्रहियों पर पुलिस ने अचानक हमला बोल दिया. जगदेव बाबू चट्टान की तरह जमें रहे और और अपना क्रांतिकारी भाषण जरी रखा, निर्दयी पुलिस ने उनके ऊपर गोली चला दी. गोली सीधे उनके गर्दन में जा लगी, वे गिर पड़े. सत्याग्रहियों ने उनका बचाव किया किन्तु क्रूर पुलिस ने घायलावस्था में उन्हें पुलिस स्टेशन ले गयी. जगदेव बाबू को घसीटते हुए ले जाया जा रहा था और वे पानी-पानी चिल्ला रहे थे. जब पास की एक दलित महिला ने उन्हें पानी देना चाहा तो उसे मारकर भगा दिया गया, उनकी छाती को बंदूकों की बटों से बराबर पीटते रहे और पानी मांगने पर उनके मुंह पर पेशाब किया गया. आज तक किसी भी राजनेता के साथ आजाद भारत में इतना अमानवीय कृत्य नहीं किया गया. पानी-पानी चिल्लाते हुए जगदेव जी ने थाने में ही अंतिम सांसे ली. पुलिस प्रशासन ने उनके मृत शरीर को गायब करना चाहा लेकिन भारी जन-दबाव के चलते उनके शव को 6 सतम्बर को पटना लाया गया, उनके अंतिम शवयात्रा में देश के कोने-कोने से लाखो-लाखों लोग पहुंचे.
जगदेव बाबू एक जन्मजात क्रन्तिकारी थे, उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना नेतृत्व दिया, उन्होंने ब्राह्मणवाद नामक आक्टोपस का सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक तरीके से प्रतिकार किया. भ्रष्ट तथा ब्राह्मणवादी सरकार ने साजिश के तहत उनकी हत्या भले ही करवा दी हो लेकिन उनका वैचारिक तथा दार्शनिक विचारपुन्ज अद्यतन पूर्णरूपेण आभामयी है.
शोषित समाज हेतु जगदेव बाबू का योगदान-
जगदेव बाबू निडर, स्वाभिमानी तथा बहुजन हितचिन्तक थे. जब बिहार नक्सलवाद की आग में जल रहा था और ये प्रतीत हो रहा था कि हथियारबंद आन्दोलन ही सामंतवाद को जड़ से उखड सकता है, जगदेव बाबू ने इसी समय जन आन्दोलन को उभारा. जहाँ नक्सलवाद सामंतवाद को सिर्फ जमीन (Land) से सम्बन्ध करके देखता है, वहीँ जगदेव बाबू जी ने इसको सही ढंग से परिभाषित किया कि सामंतवाद जमींदारी प्रथा का परिवर्तित रूप है यह प्राथमिक अवस्था में जातिवादी सिस्टम के रूप में काम करता है जो निचली जाती के लोगों का आर्थिक तथा सामाजिक शोषण करता है.उत्तर भारत की राजनीति में उनका सबसे बड़ा योगदान था कि उन्होंने मुख्यमंत्री पद को सुशोभित करते आये ऊँची जाति के एकाधिकार को समाप्त कर दिया. संसोपा में रहते हुए लोहिया के इस नारे का विरोध किया कि 'पिछड़ा पावे सौ में साठ' इसके जवाब में उन्होंने कहा- "सौ में नब्बे शोषित है, नब्बे भाग हमारा है." यद्यपि उनकी हत्या 1974 में ही हो जाती है किन्तु तब से लेकर आज तक बिहार में शोषित समाज के लोगों ने ही मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया (दरोगा प्रसाद राय से लेकर जीतनराम मांझी तक).
वे पहले ऐसे राजनेता थे जिन्होंने सामाजिक न्याय को धर्मनिरपेक्षवाद के साथ मिश्रित किया. जब 'मंडल कमीशन' कमंडल (तथाकथित राम मंदिर आन्दोलन) की भेंट चढ़ गया तब उनके सामाजिक न्याय के द्रष्टिकोण को भारी चोट पहुँची. आज सबसे ज्यादा पिछड़े वर्ग के लोग पूजा-पाठ करते है, मंदिर खुद बनवाते है लेकिन पुजारी उच्च वर्ग से होता है, पुजारी पद का कोई सामाजिक तथा लैंगिक प्रजातंत्रीकरण नहीं है इसमें शोषण तो शोषित समाज का ही होता है. अर्थात धर्म का व्यापार कई करोड़ों-करोड़ का है और ये खास वर्ण के लोगो की दीर्घकालिक आरक्षित राजनीति है. इसलिए जगदेव बाबू ने लोगों को राजनीतिक संघर्ष के साथ-साथ सांस्कृतिक संघर्ष की आवश्यकता का अहसास दिलाया था. उन्होंने अर्जक संघ को अंगीकार किया जो ब्राह्मणवाद का खात्मा करके मानववाद को स्थापित करने की बात करता है. उन्होंने 1960-70 के दशक में सामाजिक क्रांति का बिगुल फूंका था उन्होंने कहा था कि- 'यदि आपके घर में आपके ही बच्चे या सगे-संबंधी की मौत हो गयी हो किन्तु यदि पड़ोस में ब्राह्मणवाद विरोधी कोई सभा चल रही हो तो पहले उसमें शामिल हो', ये क्रांतिकारी जज्बा था जगदेव बाबू का. आज फिर से जगदेव बाबू की उस विरासत को आगे बढ़ाना है जिसमें 90% लोगों के हित, हक़-हकूक की बात की गयी है.
जगदेव बाबू वर्तमान शिक्षा प्रणाली को विषमतामूलक, ब्राह्मणवादी विचारों का पोषक तथा अनुत्पादक मानते थे. वे समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के पक्ष में थे. एक सामान तथा अनिवार्य शिक्षा के पैरोकार थे तथा शिक्षा को केन्द्रीय सूची का विषय बनाने के पक्षधर थे. वे कहते थे-
चपरासी हो या राष्ट्रपति की संतान,
सबको शिक्षा एक सामान.
जगदेव बाबू कुशवाहा जी की जयंती हर साल २ फरवरी को कुर्था (बिहार) में एक मेले का आयोजन करके मनाई जाती है, जिसमे लाखों की संख्या में लोग जुटते है. हर गुजरते साल में उनकी शहादत की महत्ता बढ़ती जा रही है. दो वर्ष पहले शोषित समाज दल ने उन्हें 'भारत लेनिन' के नाम से विभूषित किया है. उनकी क्रांतिकारी विरासत जिससे उन्होंने राजनीतिक आन्दोलन को सांस्कृतिक आन्दोलन के साथ एका कर आगे बढाया तथा जाति-व्यवस्था पर आधारित निरादर तथा शोषण के विरूद्ध कभी भी नहीं झुके, आज वो विरासत ध्रुव तारा की बराबर चमक रही है. लोग आज भी उन्हें ऐसे मुक्तिदाता के रूप में याद करते है जो शोषित समाज के आत्मसम्मान तथा हित के लिए अंतिम साँस तक लड़े. ऐसे महामानव, जन्मजात क्रांतिकारी को एक क्रांतिकारी का सलाम.